SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 637
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वदर्शनसंग्रहे मधुत्रतीका, विशोका और संस्कारशेषा के नाम से पुकारी जाती हैं । 'जिसमें प्रमाणादि चित्तवृत्तियाँ निरुद्ध कर दी जाती हैं वह निरोध है' - इस व्युत्पत्ति ( निरुक्ति ) से भी यही बात सिद्ध होती है । ६०० विशेष - सम्प्रज्ञात समाधि के चार अवान्तर भेद हम देख चुके हैं । सवितर्क समाधि में चित्त की जो अवस्था होती है उसे मधुमती कहते हैं । सविचार समाधि में चित्त की अवस्था मधुप्रतीका, सानन्द में विशोका तथा सास्मित में संस्कारशेषा कहलाती है । ये अवस्थाएं चूंकि भावरून ( Positive ) हैं, अतः ध्येय का साक्षात्कार आसानी से हो सकता है । ( १६. वृत्तिनिरोध के उपाय - अभ्यास और वैराग्य ) 'अभ्यास वैराग्याभ्यां वृत्तिनिरोधः । तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः ।' ( पात० यो० सू० १।१२- १३ ) । वृत्तिरहितस्य चित्तस्य स्वरूपनिष्ठः प्रशान्तवाहितारूपः परिणामविशेषः स्थितिः । तं निमित्तीकृत्य यत्नः पुनः पुनस्तथात्वेन चेतसि निवेशनमभ्यासः । 'चर्मणि द्वीपिनं हन्ति' इतिवत् निमित्तार्थेय सप्तमीत्युक्तं भवति । अभ्यास ( Exercise ) और वैराग्य ( Dispassion ) के द्वारा वृत्तियों का निरोध होता है । [ तुलनीय - अभ्यासवेराग्याभ्यां तन्निरोध: ( यो० सू० १११२ ) । चित्त एक नदी की तरह है जिसका प्रवाह स्वभावत: विषयों की ओर जाता है । विषयों में दोष देखने से जो वैराग्य होता है उसी से चित्त की धारा रुकती है । रुक जाने पर विवेक -दर्शन का अभ्यास करने से वह धारा विवेक मार्ग की ओर अभिमुख हो जाती है । इसी उपायद्वय से ध्येय वस्तु के आकार की वृत्ति का प्रवाह स्थिर तथा दृढ़ होता है । ] 'इनमें से चित्त को स्थिति के विषय में यत्न करना अभ्यास है ।' ( यो० सू० १११३ ) । जो चित्त [ राजस तथा तामस ] वृत्तियों से रहित हो गया है वह जब अपने रूप में ( अवस्थित ) हो शान्त होकर बहता है ( प्रशान्तवाही ) तब ऐसे परिणाम ( अवस्थान ) को स्थिति कहते हैं । उस परिणाम को निमित्त मानकर ( उसकी प्राप्ति के लिए ) यत्न किया जाता है अर्थात उस रूप में ही चित में बार-बार बैठाया जाता है यही अभ्यास है । [ 'स्थिती' शब्द में | यहाँ सप्तमी विभक्ति 'चर्मणि द्वीपिनं हन्ति' ( चमड़े के इसकी तरह [ 'निमित्तात्कर्मयोग' २३ | ३ से ] निमित्त के लिए बाघ को मारते हैं ) अर्थ में हुई है - यही कहना है । — 'दृष्टानुश्रविकविषय वितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्' ( पात० यो० सू० १।१५) । ऐहिकपारत्रिक विषयादौ दोषदर्शनान्निरभिलाषस्य 'मर्मते विषया वश्या: ' 'नाहमेतेषां वश्यः' इति विमर्शो वैराग्यमित्युक्तं भवति ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy