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________________ पातञ्जल-वर्शनम् ६०१ 'दृष्ट विषयों ( स्त्री, अन्न, जल आदि ) तथा आनुभविक विषयों ( वेदों में बतलाये गये स्वर्ग आदि ) से तृष्णा हटा लेनेवाले व्यक्ति जब [ विषयों को अपने ] वश में कर लेने का बोध करते हैं तब उसे वैराग्य कहते हैं' ( यो० सू० १।१५ ) । ऐहिक और पारoffer दोनों तरह के विषयों में दोष ( विनाश, परिताप, सातिशय, असूय आदि ) देख लेने के बाद जिस व्यक्ति में [ उन्हें प्राप्त करने की ] लालसा नष्ट हो गई हो तथा जब वह 'ये विषय मेरे ही वश में हैं' और 'मैं इनके वश में नहीं हूँ', इस प्रकार का विचार करने लगे वह दशा वैराग्य कहलाती है । विशेष - वेराग्य की चार संज्ञायें हैं - यतमान-संज्ञा ( रागादि के पाक करना ), एकेन्द्रिय-संज्ञा ( पके हुए कषायों का मन में उत्सुकता के रूप में वशीकारसंज्ञा ( लौकिक तथा अलौकिक विषयों की उपेक्षा कर देना ) । इस उपायों से चित्त की वृत्तियों का विरोध होता है । अब अभ्यास और वैराग्य की हो ? इसके लिए क्रियायोग बतलाते हैं । विधानपरेण योगिना भवितव्यम् । सम्भवात् । तदुक्तं भगवता - के लिए यत्न ( १७. समाधिप्राप्ति के लिए क्रियायोग ) समाधिपरिपन्थिक्लेशतनूकरणार्थं च समाधिलाभार्थं प्रथमं क्रियायोगक्रियायोगसम्पादनेऽभ्यास वैराग्ययोः १२. आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते । योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥ रहना ) तथा प्रकार दोनों सिद्धि कैसे ( गी० ६।३ ) इति । समाधि के मार्ग में शत्रु की तरह रुकावट डालनेवाले क्लेशों को क्षीण करने ( उनकी कार्यकरो शक्ति को समाप्त करने ) के लिए तथा समाधि की प्राप्ति के लिए, सबसे पहले योगी को क्रियायोग ( Practical concentration ) के विधान के अनुसार चलना चाहिए | क्रियायोग सम्पन्न होने पर ही अभ्यास और वेराग्य सम्भव हैं । इसे भगवान् कृष्ण ने ही कहा है—'जो मुनि योग ( चित्तवृत्तनिरोध ) पर आरोहण करने की इच्छा रखते हैं उनके लिए कर्म ( क्रियायोग ) ही साधन बतलाया गया है । यदि वही मुनि योगारूढ़ हो गया तब [ उसके ज्ञान के परिपाक के लिए ] राम ( सभी कर्मों से संन्यास लेना ) ही कारण कहा गया है । ' ( गी० ६।३ ) । विशेष - गीता में कृष्ण ने इसके बाद ही 'योगारूढ़ मुनि का लक्षण दिया हैयदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते । सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥ ( गी० ६ ४ ) | अर्थात् जब पुरुष न तो इन्द्रियों के विषयों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, जब वह सभी संकल्पों से संन्यास ले लेता है तभी योगारूढ़ कहलाता है ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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