________________
सर्वदर्शनसंग्रहे
'शास्त्रयोनित्वात्' ( ब्र० सू० १।१३ ) इति तृतीयसूत्रे प्रथमवर्णकेन षष्ठीसमासमाश्रित्य सर्वज्ञत्वं प्रत्यपादि । द्वितीयवर्णकेन बहुव्रीहिसमासमभ्युपगम्य ब्रह्मणो वेदान्तप्रमाणत्वं प्रत्यज्ञायि ।
७६०
]
= शास्त्र का मूल,
'शास्त्र का मूल या शास्त्रमूलक होने के कारण [ ब्रह्म सर्वज्ञ है में पहली रीति से तो [ शंकराचार्य ने ] षष्ठी तत्पुरुष समास लेकर ( वेदों का उत्पादक ) ब्रह्म के सर्वज्ञ होने का प्रतिपादन किया है । दूसरी रीति से बहुव्रीहि समास लेकर ( = शास्त्र या वेद ही जिसका प्रमाण या योनि हैं ) ब्रह्म को उपनिषद् के प्रमाणों से ही ज्ञेय माना है |
1
'तत्तु समन्वयात्' ( ब्र० सू० १।१।४ ) इति चतुर्थे सूत्रे प्रथमवर्णकेन वेदान्तानां ब्रह्मणि तात्पर्यं प्रत्यपादि । द्वितीयवर्णकेन वेदान्तानां प्रतिपत्तिविधिशेषतया ब्रह्मप्रतिपादकत्वं प्रत्यक्षेऽपि । दिङ्मात्रमत्र प्रदर्शितम् । शिष्टं शास्त्र एव स्पष्टमिति सकलं समञ्जसम् ।
इति श्रीमत्सायण माधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे सकलदर्शन शिरोऽलङ्काररत्नं श्रीमच्छाङ्करदर्शनं समाप्तम् ॥
- इस तृतीय सूत्र
-
'उस ( शास्त्र ) का तो तात्पर्य समन्यव ( Reconciliation ) से लगता है' – इस चौथे सूत्र में प्रथम रोति से अनिका ताल ब्रह्म में है, यह प्रतिपादित हुआ है । दूसरी रीति से यह दिखाया गया है कि अनिषद्-वाक्य ज्ञान-विधि के अवशिष्ट भाग के रूप में ( = उपासना आदि विधियों के विषय के रूप में नहीं, मुख्य रूप से ) प्रत्यक्ष में भी ब्रह्म का प्रतिपादन करते हैं। यहां तो हमने केवल दिशा-निर्देश किया है । अवशिष्ट भाग शास्त्र में ही स्पष्ट हो चुका है, तो सब कुछ ठीक है ।
इस प्रकार श्रीमान् सायण-माधव के सर्वदर्शनसंग्रह में सभी दर्शनों के सिर पर विराजमान अलंकार - रत्न श्रीशांकर-दर्शन समाप्त हुआ । यह सर्वदर्शनसंग्रह भी समाप्त हो गया ।
॥ इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां व्याख्यायां शांकरदर्शनमवसितम् ॥ चन्द्रकराभ्रपक्षसुमिते श्रीवंक्रमे वत्सरे वैशाखे धवले दले निशि मयाष्टम्यां दिने मङ्गले । काश्यां दर्शनसंग्रहस्य विहिता व्याख्या समाप्ति श्रिता
प्रीत्यं सास्तु शिवस्य दिव्यवपुषो दीनात्मनीना कृतिः ॥ ॥ श्रीरस्तु ॥
समाप्तोऽयं सर्वदर्शनसंग्रहः ।
रम्ये