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________________ सर्वदर्शनसंग्रहे उसी प्रकार अनेक 'चलन' क्रियाओं में विद्यमान चलनत्व जाति 'चल' शब्द का प्रवृत्ति - निमित्त है और वह जाति हो उसका वाच्यार्थ है । 'चल' शब्द से चलन क्रिया की प्रतीति उपर्युक्त ( चलनत्व ) जाति के सम्बन्ध से ही होती है । क्रिया के आधार के रूप में देवदत्त आदि ( देवदत्तः चलति - वाक्य में ) का बोध उस जाति की सम्बन्धी क्रिया के सम्बन्ध से ही होती है । 'डित्य' नाम का पशु यद्यपि एक ही है परन्तु शेशव, यौवन आदि अवस्थाओं के भेद से उस प्रकार के अनेक व्यक्तियों में विद्यमान डित्थत्व जाति ही 'डिल्य' शब्द का प्रवृत्तिनिमित्त है, वही उसका वाच्यार्थं है । व्यक्ति का बोध डित्थत्व के आश्रय या आधार के रूप में होता है । इस प्रकार वाजप्यायन के मत से जाति ही वाच्यार्थ है । ५२२ संज्ञाशब्दानामुत्पत्तिप्रभूत्या विनाशच्छंशवकौमारयौवनाद्यवस्थादिभेवेऽपि स एवायमित्यभिन्नप्रत्ययबलात्सिद्धा देवदत्तत्वादिजातिरभ्युपगन्तव्या । क्रियास्वपि जातिरालक्ष्यते । संव धातुवाच्या । पचतीत्यादावनुवृत्तप्रत्ययस्य प्रादुर्भावात् । संज्ञा - शब्दों ( Proper names ) में उत्पत्ति से लेकर विनाश पर्यन्त शेशव, कौमार, यौवन आदि अवस्थाओं का भेद पड़ने पर भी, 'यह वही है' - इस तरह के अभेद की प्रतीति होती है जिससे देवदत्तत्वादि जाति सिद्ध होती है । क्रियाओं में भी जाति की ही प्रतीति होती है और उसे ही 'धातु' नाम से पुकारते हैं । 'पचति' इत्यादि क्रियाओं में सभी में क्रिया के अनुवृत्त होने की प्रतीति होती है ( जितने लोग पाक कर रहे हैं उन सबों में 'पचति' का ही अनुवर्तन होता है ) । द्रव्यपदार्थवादिव्याडिनये शब्दस्य व्यक्तिरेवाभिधेयतया प्रतिभासते । जातिस्तुपलक्षणतयेति नानन्त्यादिदोषावकाशः । द्रव्य ( व्यक्ति ) को पदार्थ माननेवाले व्याडि -आचार्य के मत से अभिधेय के रूप में शब्द का व्यक्ति ही प्रतिभासित होता है [ जाति नहीं ] । जाति तो केवल उपलक्षण या संकेत के रूप में प्रतिभासित होती है अतः व्यक्ति के आनन्त्य आदि का दोष इस पर नहीं लग सकता । [ ऐसी शंका हो सकती है कि अनन्त गो-व्यक्ति होने के कारण 'गो' शब्द का अर्थ जानना कठिन है । किन्तु उत्तर यह होगा कि गोत्व-जाति से सभी गो-व्यक्तियों का ज्ञान हो जायगा । ऐसी दशा में गोत्व-जाति गोव्यक्ति का उपलक्षण है, वाच्यर्थं नहीं ।] ( १२. पाणिनि के मत से पदार्थ - जाति व्यक्ति दोनों है ) पाणिन्याचार्यस्योभयं सम्मतम् । यतो जातिपदार्थमभ्युपगम्य 'जात्याख्यायामेकस्मिन्बहुवचनमन्यतरस्याम्' ( पा० सू० १।२।५८ ) इत्यादिव्यवहारः । द्रव्यपदार्थमङ्गीकृत्य 'सरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ' ( पा० सू०
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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