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________________ सर्वदर्शनसंग्रहे का ही निषेध होता है । असत् वस्तु की भी यदि कल्पना की गई हो तो उसका निषेध क्यों नहीं हो सकता ? ] ( १६. 'इदं रजतम्' में ज्ञान की एकता-शंका और समाधान ) नन्विदं रजतमिति ज्ञानमेकमनेकं वा ? न तावदाद्यः । अपसिद्धान्तापत्तेरसम्भवाच्च । तथा हि-शक्तीदमंशेन्द्रियसम्प्रयोगादिदमाकारान्तःपरिणामरूपमेकं ज्ञानं जायते । न च तत्र कलधौतं विषयभावमाकल्पयितुमुत्सहते । असम्प्रयुक्तत्वात्तस्य विषयत्वाङ्गीकारे सर्वज्ञत्वापत्तेः। __अब शंका हो रही है कि रजत का यह ज्ञान एक है या अनेक ? एकात्मक तो नहीं ही है क्योंकि इसमें अपसिद्धान्त ( सिद्धान्त का भङ्ग) होता है | अद्वैत वेदान्ती अज्ञान का द्वैत स्वीकार करते हैं--देखिये आगे]। इसके अतिरिक्त ऐसा करना सम्भव भी नहीं। कारण यह है कि सीपी के रूप में जो इदमंश है यह इन्द्रियों के साथ सम्बद्ध है अतः 'इदम्' के आकार में अन्तःकरण का परिणाम उत्पन्न होता है जो एक ही ज्ञान है। [ इसी परिणाम को वृत्ति या ज्ञान भी कहते हैं । ] इस ज्ञान का विषय रजत नहीं बन सकता क्योंकि रजतत्व का सन्निकर्ष इन्द्रिय से नहीं हुआ है । फिर यदि [ सन्निहित न होने पर भी रजत को ] ज्ञान का विषय मान लेंगे तो ज्ञाता ( प्रत्यक्ष करनेवाले ) को सर्वज्ञ मानना पड़ेगा । [ सामने न रहने पर भी किसी वस्तु को जान लेना ही तो सर्वज्ञता है ! ] न च चक्षुरन्वयव्यतिरेकानुविधायितया तज्ज्ञानस्य तज्जन्यत्वं वाच्यम् । इदमंशज्ञानोत्पत्तौ तदुपक्षयोपपत्तेः । न चापि संस्काराद्रजतज्ञानस्य जन्म । स्मृतित्वापत्तेः । अथेन्द्रियदोषस्य तत्करणत्वम् । तदप्ययुक्तम् । स्वातन्त्र्येण तस्य ज्ञानहेतुत्वानुपपत्तेः । न हि ग्रहणस्मरणाभ्यामन्यः प्रकारः समस्ति । तस्मादिदमंशरजततादात्म्यविषयकमेकं विज्ञानं न घटते । नाप्यनेकम्, अख्यातिमतापत्तैरिति चेत् आप ऐसा भी नहीं कह सकते कि चक्षु के साथ, उस ( रजत के ) ज्ञान को, अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा अनुविधान ( अपेक्षा ) दिखाकर, चक्षु से ही उत्पन्न मान लें। [ चक्षु के साथ सन्निकर्ष होने पर रजत-ज्ञान होता है-अन्वय । सन्निकर्ष नहीं होने पर रजनज्ञान भी नहीं होता-व्यतिरेक । अतः चक्षु से ही रजत ज्ञान हुआ है, पर पूर्वपक्षी कहते हैं कि ऐसी बात नहीं ] क्योकि 'इदम्' अंश के ज्ञान की उत्पत्ति में चक्षु की अनुपयोगिता की सिद्धि हो जायगी। [चक्षु का उपयोग वास्तव में इदमंश के ज्ञान में है क्योंकि उसी के साथ चक्षु का सन्निकर्ष हो रहा है। रजत के ज्ञान के साथ सम्बन्ध मानने से तो इदमंश का त्याग करना पड़ेगा । इसका दूसरा पाठ है-तदपेक्षायाः उपपत्तेः अर्थात् इदमंश के ज्ञान में ही चक्षु की आवश्यकता सिद्ध होती है, रजत के ज्ञान में नहीं । ]
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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