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________________ शांकर-वर्शनम् ७४९ मान किया जा सकता है । [ सीपी के तत्त्व की अभिव्यक्ति होने पर आरोपित रजत की मिथ्यादृष्टि नष्ट होती है। वैसे ही आत्मतत्त्व के साक्षात्कार से इस कर्तृत्वादि बन्ध का नाश होता है। यदि सीपी में रजत की प्रतीति मिथ्या है तो आत्मतत्त्व में प्रपंच की प्रतीति भी मिथ्या ही है । अब उक्त अनुमान का स्वरूप दिखलाते हैं-] (१) प्रस्तुत ( बन्ध ) मिथ्या है । ( प्रतिज्ञा ) (२) क्योंकि आधारभूत ( आत्मा ) के तत्त्वज्ञान से इसकी निवृत्ति होती है। ( हेतु) ( ३ ) जैसे सोपी और चांदी की भ्रान्ति होती है । ( उदाहरण ) न च 'विमतं सत्यं भासमानत्वात्' इति प्रतिप्रयोगे समानबलतया बाधप्रतिरोधः प्रतिरोधभियाऽन्यतरदोषत्वसम्भवादिति वदितव्यम् । मरुमरीचिकोदकादौ सव्यभिचारात् । अबाधितत्वेन विशेषणान्न दोष इति चेत्-मैवं भाषिष्ठाः। विशेषणासिद्धः। ___ऐसा न समझें कि प्रस्तुत विषय ( प्रपंच ) सत्य है क्योंकि प्रतीत होता है-इस तरह के विरोधी अनुमान (Counter-argument ) में समान बल होने के कारण बाध ( संसार को मिथ्या मानकर आत्मतत्त्व के द्वारा उसकी निवृत्ति मानना ) के सिद्धान्त का खण्डन हो जायगा । क्योंकि प्रतिरोध ( Oppsition ) के भय से [ बचने के लिए ] किसी एक में दोष की सम्भावना दिखानी होगी। [ पूर्वपक्षी कहता है कि हमने एक विरोधी अनुमान दिया जिसमें प्रपञ्च का साध्य है सत्यता और दूसरी ओर आपका साध्य है मिथ्यात्व । दोनों के साध्य विरोधी हैं, दोनों दो हेतु भी दे रहे हैं । मान लिया कि एक हेतु सत् है, दूसरा असत् । किन्तु जब तक आप किसी एक हेतु में दोष दिखाकर दूसरे को प्रबल सिद्ध नहीं करते तब तक कोई भी हेतु अपने साध्य को सिद्ध नहीं कर सकेगा। बतलाइये, हमारे हेतु में क्या दोष है ? सुनिये-] मरुभूमि में मरीचि ( सूर्य किरणों से ) उत्पन्न ( Mirage ) जल आदि में व्यभिचार होगा [ अर्थात् मृगमरीचिका में जल तो प्रतीत होता है पर वह सत्य नहीं है । अतः 'प्रतीत होने के कारण' कोई वस्तु सत्य हो, ऐसी बात नहीं । वह हेतु व्यभिचरित होता है। ] [ पूर्वपक्षी फिर कहता है-] हम उक्त हेतु में 'अबाधित होने पर' ऐसा विशेषण लगा देते हैं ( अर्थात्-'क्योंकि अबाधित होने पर प्रतीति होती है'-पूरा हेतु ) तो दोष नहीं होगा [ क्योंकि मृगमरीचिका प्रतीत तो होती है, पर इसकी निवृत्ति भी तो होती है ? दूसरी ओर प्रपञ्च की प्रतीति इस तरह की होती है कि उसकी निवृत्ति (बाध ) न हो सके। ] किन्तु ऐसा मत कहिए । आपके दिये गये विशेषण की ही सिद्धि नहीं हो सकेगी। [प्रपञ्च भासित होता है और बाधित नहीं होता हो, ऐसी बात नहीं। अब कैसे बाधित होता है, इसे दिखाते हैं ! ]
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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