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________________ सर्वदर्शनसंग्रहे 'जिस शब्द की सामर्थ्य ( शब्दार्थ - बोध की शक्ति ) लोक व्यवहार से अवगत हो चुकी है वह ( शब्द ) वेद में भी बोधक होता है - इस नियम से शास्त्र भी लोकव्यवहार से सिद्ध पद-शक्ति और पदार्थबोध को योग्यता को स्वीकार करके ही अर्थबोध कराता है । [ शास्त्र के वाक्यों का तात्पर्य लौकिक युक्तियों से ही ग्रहण करें । ] ७४८ अपरथा 'आदित्यो यूप:' ( तै० ब्रा० २।१५ ) ' यजमानः प्रस्तरः ' ( तै० सं० १।७।४ ) इत्यादिवाक्यस्तोमस्य यथाश्रुतेऽर्थे प्रामाण्यापतेः वैदिक्या: क्रियायाः समक्षक्षयितया पारत्रिक फलक रणत्वान्यथानुपपत्त्या अपूर्वाङ्गीकरणानुपपत्तिश्च । यदि ऐसा न हो तो 'आदित्य यज्ञस्तम्भ है' ( ते० ब्रा० २।११५ ) 'यजमान पत्थर है' ( तै० सं० ११७१४ ) इस तरह के वाक्य-समूहों की प्रामाणिकता हमें उन्हीं अर्थों में माननी पड़ेगी जिनका बोध इनके अन्दर के शब्द कराते हैं । [ सम्भाव्य अर्थ में ही श्रुति भी प्रामाणिक होती है । प्रथम वाक्य का यथाश्रुत अर्थ है - आदित्य और खूंटे का तादात्म्य ! किन्तु इस अर्थ में तो श्रुति प्रामाणिक नहीं हो सकती - लौकिक व्यवहार इसका विरोध करेगा । आदित्य के साथ सादृश्य भले ही है, क्योंकि यूप में आदित्य के गुण – तेज, चमक आदि हैं । इसी अर्थ में ये श्रुतिवाक्य प्रमाण हो सकते हैं । यजमान भी पत्थर के समान सहिष्णु है । ] [ ज्योतिष्टोम याग आदि ] वैदिक क्रियायें देखते-ही-देखते नष्ट हो जानेवाली हैं, इसलिए पारलौकिक फल ( स्वर्ग की प्राप्ति ) उत्पन्न करने की असिद्धि दूसरे प्रकार से ( कार्य-कारण-भाव के दृष्टिकोण से ) भी हो जाती है । [ आशय यह है कि ज्योतिष्टोमयाग एक क्रिया है जिसका नाश अत्यन्त शीघ्रता से हो जाता है । किन्तु वेदों में इसका फल दिया गया है— स्वर्गप्राप्ति । क्या स्वर्गप्राप्ति तक वह याग अपना फल देने के लिए बैठा रहेगा ? किसी भी दशा में दूर रहने के कारण कार्य-कारण-सम्बन्ध की स्थिति नहीं हो पाती। यदि आप कहें कि अपूर्व या अदृष्ट के कारण क्रिया का फल सुरक्षित रहेगा तो हमारा उत्तर है कि अपूर्व को स्वीकार करने के लिए भी कोई प्रमाण नहीं । लोके च शुक्तिव्यक्ति तत्त्वाभिव्यक्तावपनीयमानस्यारोपितस्य मिध्यात्वतद्दृष्टान्तावष्टम्भेनात्मतत्वसाक्षात्कारविद्यापनोद्यस्याविद्यकस्य बुष्टौ बन्धस्य मिथ्यात्वानुमानसम्भवात् । विमतं मिथ्या, निवर्त्यत्वात्, शुक्तिकारूप्यवदिति । अधिष्ठानतत्त्वज्ञान तत्त्व प्रकाशित तो लौकिक व्यवहार में जब सीपी का व्यक्तिगत ( Individual ) होता है तब उसके द्वारा दूर हटाने के योग्य आरोपित पदार्थ ( चाँदी ) के मिथ्या होने की दृष्टि मिलती है, उसी दृष्टान्त पर आधारित होने के कारण, आत्मतत्त्व के साक्षात्काररूपी ज्ञान के द्वारा दूर हटाने योग्य जो यह अविद्या-कल्लित बन्ध है उसके मिथ्या होने का अनु
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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