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सर्वदर्शनवंबहेहैं । 'अथ' का जो 'मङ्गल' अर्थ करते हैं वह कार्य अर्थ है-जैसे राम का वाच्यार्य व्यक्तिविशेष होता है वैसे 'अथ = मङ्गल' नहीं होता, मङ्गल 'अथ' के उच्चारण से उत्पन्न होता है, कार्य है । स्वभावतः ये दोनों अर्थ पदार्थ नहीं हैं, इसलिए वाक्यार्थ करने में इनका कोई महत्त्व नहीं । फलतः 'अथ योगानुशासनम्' में अथ का अर्थ मङ्गल लेने से योगानुशासन के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं होगा । केवल 'योगानुशासनम्' कहने से वाक्य अपूर्ण रह जाता जिसकी पूर्ति 'अथ' से होती है । अब यदि अथ को भी मङ्गलोत्पादक मान लेंगे तब तो वाक्य अपूर्ण ही रह जायगा।
ननु प्रारिप्सितप्रबन्धपरिसमाप्तिपरिपन्थिप्रत्यूहव्यूहप्रशमनाय शिष्टाचारपरिपालनाय च शास्त्रारम्भे मङ्गलाचरणमनुष्ठेयम् । 'मङ्गलादीनि मङ्गलमध्यानि मङ्गलान्तानि च शास्त्राणि प्रथन्ते, आयुष्मत्पुरुषकाणि पीरपुरुषकाणि च भवन्ति' ( पात० भाष्य० आह्निः ३) इत्यभियुक्तोक्तेः । भवति च मङ्गलार्थोऽथशब्दः
२. ओंकारश्चाथशब्दश्च द्वावेतो ब्रह्मणः पुरा । ___ कण्ठं भित्त्वा विनिर्यातौ तस्मान्माङ्गलिकावुभौ ॥ इतिस्मृतिसम्भवात् । तथा च 'वृद्धिरादच्' (पा० सू० ११११) इत्यादी वृद्धयादिशब्दवदथशब्दो मङ्गलार्थः स्यादिति चेत् ।
[पूर्वपक्षी लोग ‘फर भी 'अर्थ' मङ्गलार्थक मानते हुए कह सकते हैं-] जिस प्रबन्ध का आरम्भ करने की इच्छा है ( प्रारिप्सित ) उसकी समीचीन समाप्ति के समय तक रुकावट डालने वाले (परिपन्थिन् ) विघ्नों के समूह के विनाश के लिए तथा शिष्टाचार का परिपालन करने के लिए भी शास्त्र के आरम्भ में मङ्गलाचरण का अनुष्ठान करना चाहिए। अभियुक्त ( आप्त ) पुरुषों का भी यही कहना है-'जिन शास्त्रों के आदि में, मध्य में तथा अन्त में मङ्गल होता है वे शास्त्र प्रसिद्ध हो जाते हैं । उनके अध्येता आयुष्मान तथा वीर (शास्त्रार्थ अपराजित ) होते हैं ।' (महाभाष्य, आह्निक ३, पा० सू० १३१।१ पर)।
मङ्गल के अर्थ में 'अथ' शब्द होता भी है-'ओम् और अथ शब्द ये दोनों प्राचीन काल में ब्रह्मा के कंठ को छेदकर बाहर निकले (= ब्रह्मा की इच्छा के बिना निकले ), इसलिए ये दोनों मांगलिक कहलाये।' ऐसा स्मृति से चला आ रहा है । इसलिए 'वृद्धिरादेच्' ( पाणिनि का प्रथम सूत्र ) में वृति आदि शब्द की तरह 'अर्थ' शब्द भी मङ्गल के अर्थ में हो सकता है।
मैवं भाषिष्ठाः । अर्थान्तराभिधानाय प्रयुक्तस्याथशब्दस्य वीणावेण्वादिध्वनिवत् श्रवणमात्रेण मङ्गलफलत्वोपपत्तेः । अथार्थान्तरारम्भवाक्यार्थधोफलकस्याथशम्दस्य कथमन्यफलकतेति चेन्न । अन्यायं नीयमानोदकुम्भोपलम्भवत्तत्सम्भवात् । न च स्मृतिव्याकोपः । माङ्गलिकाविति मङ्गलप्रयोजनत्वविवक्षया प्रवृत्तः।