________________
पातबल-दर्शनम्
५६९
[ उक्त शंका का उत्तर इस प्रकार है - ] ऐसा मत कहिये । 'अथ' शब्द किसी दूसरे अर्थ के प्रकाशन के लिए प्रयुक्त हुआ है; वीणा, वेणु ( बांसुरी ) आदि की ध्वनि की तरह केवल इसके श्रवण करने से ही मङ्गलात्मक फल की सिद्धि होती है । [ 'वृद्धिरादेच्' में वृद्धि का अर्थ मङ्गल नहीं है, वृद्धि तो पाणिनि व्याकरण की एक संज्ञा है । संज्ञा का बोधक होने पर भी इस शब्द के उच्चारण या श्रवण से मङ्गल की सिद्धि होती है । उसी प्रकार 'अर्थ' शब्द का अर्थं दूसरा कुछ है किन्तु इसके श्रवण से मङ्गलाचरण होता ही है । अतः ऐसे शब्दों से दो-दो प्रयोजन सिद्ध होते हैं । ]
[ इस उत्तर पर भी कोई पूछ सकता है कि ] मङ्गलार्थ के अतिरिक्त, आरम्भ [ आदि rat ] का बोध घी ) वाक्यार्थ में करानेवाले 'अथ' शब्द से दूसरे फल ( अर्थ ) कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ? ( यह कैसे सम्भव है कि 'अथ' आरम्भ का वाक्यार्थ भी निकले और मङ्गल भी व्यक्त हो ? ) ऐसा नहीं सोचना चाहिए। जिस प्रकार दूसरे काम से ले जाये जानेवाले पानी से भरे घड़े को देखने से [ यात्रा पर निकले हुए व्यक्ति का शुभ शकुन होता है ], उसी प्रकार यह भी सम्भव है । ऐसा मानने पर भी उक्त स्मृति ( तस्मान्माङ्गलिकावुभौ ) का खण्डन नहीं होता । ' माङ्गलिको' कहने का अर्थ [ यह नहीं है कि ओम् और अथ का वाच्यार्थं ही मङ्गल है प्रत्युत ] 'इसका लक्ष्य मङ्गल है' इसी विवक्षा से उक्त शब्द प्रयुक्त किया गया है |
विशेष - अब अथ शब्द के 'पूर्वप्रकृत की अपेक्षा रखना' अर्थ का खण्डन करके अन्त में 'आरम्भ' अर्थ में इसकी सिद्धि करेंगे ।
( ४. 'अथ' का आरम्भ या अधिकार )
नापि पूर्वप्रकृतापेक्षोऽथशब्दः । फलत आनन्तर्याव्यतिरेकेण प्रागुक्तदूषणानुषङ्गात् । किमयमथशब्दोऽधिकारार्थोऽथानन्तर्यार्थ इत्यादिविमर्शवाक्ये पक्षान्तरोपन्यासे तत्सम्भवेऽपि प्रकृते तदसम्भवाच्च ।
ऐसी बात भी नहीं है कि 'अथ' शब्द से पहले से प्रस्तुत वस्तु की अपेक्षा रखी जाय । [ योग्यता के बल से शमदमादि या शिष्य का प्रश्न या प्रकाशनेच्छा आदि के रूप में कुछ न कुछ पूर्वप्रकृत वस्तु स्वीकार करनी पड़ेगी। ] फलतः यह अर्थ आनन्तर्य अर्थ से भिन्न नहीं है जो-जो दोष उस अर्थ को स्वीकार करने पर लगाये जाते हैं वे यहां भी प्राप्त हो जायेंगे । 'यह अथ शब्द क्या अधिकार के अर्थ में होता है या आनन्तर्य के अर्थ में ?" इस प्रकार के विमर्श ( विभिन्न मत ) के बोधक वाक्य में दूसरे पक्ष की स्थापना करने पर ये अर्थ ( आनन्तर्य और अधिकार ) सम्भव भी हैं किन्तु प्रस्तुत अर्थ लेने पर तो वह ( पक्षान्तर की स्थापना ) सम्भव ही नहीं [ क्योंकि कोई भी पूर्वप्रकृत वस्तु नहीं मिलती है । नित्य रूप से साकांक्ष न रहने के कारण कोई अर्थ पहले से नहीं मान सकते । ]
तस्मात्पारिशेष्यादधिकारपद वेदनीयप्रारम्भार्थोऽयशब्द इति विशेषो भाष्यते । यथा 'अर्थष ज्योतिरथेष विश्वज्योतिः' इत्यत्राथशब्द ऋतुविशेष