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________________ अक्षपाद-दर्शनम् नहीं मिल रहा है। अब पूर्वपक्षी कहते हैं कि हेत्वन्तर की सत्ता है जो साध्याभाव ( अकर्तृकत्व ) सिद्ध कर दे । वह हेतु है-'शरीराजन्यत्व' । नैयायिक कहते हैं कि अजन्यत्व हो पर्याप्त है, शरीराजन्यत्व क्यों रखते हैं ? नैयायिक अपने प्रतिद्वन्द्वी को तर्क करना भी सिखाते हैं । अस्तु, कोई बात नहीं। पूर्वपक्षी अपने हेतु को सुधार कर फिर तर्क करता है-] तीजन्यत्वमेव साधनमिति चेत्-न असिद्धः। नापि सोपाधिकत्वशङ्काकलङ्काकुरः सम्भवी । अनुकूलतर्कसम्भवात् । ___ यद्ययमकर्तृकः स्यात्कार्यमपि न स्यात् । इह जगति नास्त्येव तत्कायं नाम यत्कारकचक्रमवधीर्यात्मानमासादये दित्येतदविवादम् । तच्च सर्व कर्तृविशेषोपहितमर्यादम् । तब यदि ये पूर्वपक्षी 'अजयन्यत्व' को ही साधन ( हेतु ) मानें तो भी ठीक नहीं । इसकी भी सिद्धि नहीं होती। [ अजन्य का अर्थ है उत्पत्ति से रहित होना । कोई नहीं कहेगा कि पर्वत, सागरादि की उत्पत्ति नहीं होती या ये अजन्य हैं । किसी प्रमाण में इसकी सिद्धि नहीं हो सकती। नैयायिकों ने पूर्वपक्षियों को अच्छा फंसा दिया ! 'शरीर' विशेषण हटवा कर उन्हें विधिवत् परास्त किया। ] इसके अलावे [ वस्तुतः उपाधि न होने पर भी ] यदि कोई 'कार्यत्व' हेतु के सोपाधिक होने की शंका करे तो भी इस हेतु पर कलंक का अंकुर नहीं उग सकता। कारण यह है कि अनुकूल तर्क दिया जा सकता है । [ यदि 'सकर्तृकत्व' (साध्य) का व्यापक तथा 'कार्यत्व' ( हेतु ) का अव्यापक कोई पदार्थ निकले तभी उपाधि को शंका की जा सकती है। ऐसी सम्भावना तभी है जब कार्यत्व व्यभिचारी हो । व्यभिचारी की भी सम्भावना तभी है जब कर्ता से रहित ( अकर्तृक ) वस्तु कार्य उत्पन्न करने लगे । अनुकूल तर्क से इसका खण्डन किया जा सकता है । अनुकूल तर्क का स्वरूप दिखलाया जाता है-] ___यदि यह ( संसार, पर्वतादि ) अकर्तृक ( Without a maker ) होता तो कार्य भी नहीं होता, [ क्योंकि कर्ता से उत्पन्न वस्तुओं को ही कार्य कहते हैं । ] इस संसार में ऐसा कोई कार्य ही नहीं, जो कारकचक्र ( कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ) का तिरस्कार करके अपनी स्थिति दृढ़ कर ले—इतना तो निर्विवाद है। सारे कार्यों की मर्यादा किसी-न-किसी कर्ता पर ही आधारित है। [घट, पट आदि उत्पत्ति के समय कुम्भकार, तन्तुवाय आदि कर्ता सभी कारकों को कार्योत्पत्ति के गुण के अनुसार बैठाता है । कर्ता अपने को भी वैसे ही बैठाता है। (१३ ख. कर्ता का लक्षण तथा ईश्वर का कर्तृत्व ) कर्तृत्वं चेतरकारकाप्रयोज्यत्वे सति सकलकारकप्रयोक्तृत्वलक्षणं ज्ञानचिकीर्षाप्रयत्नाधारत्वम् । एवं च कर्तृव्यावृत्तेस्तदुपहितसमस्तकारकव्या
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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