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रामानुज-दर्शनम्
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विशेष – यहाँ जीव और ईश्वर के बीच के भेद को बांधने की बहुत ही सुन्दर चेष्टा हुई है । जीव को शरीर माना गया और ईश्वर उसकी आत्मा है । आत्मा और शरीर चूंकि परस्पर विरोधी शब्द हैं अतः दोनों के बीच शरीरात्म-भाव दिखाकर 'त्वम्' शब्द का अर्थं जीव के शरीर को धारण करनेवाले परमात्मा के रूप में किया जाता है । 'तत् त्वम्' कहने पर कोई विरोध नहीं है - तादात्म्य दोनों में हो सकता है । ( १२. सभी शब्द परमात्मा के वाचक हैं )
अत्यल्पमिदमुच्यते । सर्वे शब्दाः परमात्मन एव वाचकाः । न च पर्यायत्वम् । द्वारभेदसम्भवात् । तथा हि जीवस्य शरीरतया प्रकारभूतानि देवमनुष्यादिसंस्थानानीव सर्वाणि वस्तूनोति ब्रह्मात्मकानि तानि सर्वाणि ।
[ 'त्वम्' शब्द से जो जीव के अन्तर्यामी परमात्मा का बोध हुआ ] यह तो थोड़ा सा ही कहा गया । वास्तव में तो संसार में जितने भी [ घट, पट, मनुष्य आदि ] शब्द हैं, सभी परमात्मा के वाचक हैं। ऐसी दशा में यह बात नहीं है कि वे ( शब्द ) एक दूसरे के पर्याय हो जायें, क्योंकि सभी शब्दों में द्वार के भेद की सम्भावना है ( घट-शब्द घट-पदार्थ की अभिव्यक्ति के द्वारा अपने अन्दर के परमात्मा का बोधक होगा, इस प्रकार सभी शब्द अपने निश्रित पदार्थों के द्वारा परमात्मा का बोध कराते हैं—जिस विधि से बोध होता है उसी के द्वार में अन्तर है ) । जैसे देवताओं, मनुष्यों और अन्य योनियों के शरीर के अवयव उनमें निवास करनेवाले जीव के शरीर के विभिन्न प्रकार ( Forms ) हैं, उसी प्रकार सारी वस्तुएं ब्रह्मात्मक हैं । [ मनुष्यों के शरीर के विविध अवयव उस शरीर के विभिन्न रूप हैं, उन अवयवों को हम मनुष्यात्मक कहते हैं क्योंकि सब मनुष्य के ही हैं । ब्रह्म के शरीर के विविध अवयवों के रूप में ये सारी वस्तुएं दृष्टिगोचर होती हैं अतः ये ब्रह्मात्मक हैं । ]
अतः
६. देवो मनुष्यो यक्षो वा पिशाचोरगराक्षसाः ।
पक्षी वृक्षो लता काष्ठं शिला तृणं घटः पटः ॥
इत्यादयः सर्वे शब्दाः प्रकृतिप्रत्यययोगेनाभिधायकतया प्रसिद्धा लोके, तद्वाच्यतया प्रतीयमानतत्तत्संस्थानवद्वस्तुमुखेन तदभिमानिजीव तदन्तर्यामिपरमात्मपर्यन्तसङ्घातस्य वाचकाः । देवादिशब्दानां परमात्मपर्यन्तत्वमुक्तं तत्त्वमुक्तावल्यां चतुर्थसरे—
७. जीवं देवादिशब्दो वदति तदपृथक्सिद्धभावाभिधानानिष्कर्षाभावयुक्ताद्बहुरिह च दृढो लोकवेदप्रयोगः । आत्मासम्बन्धकाले स्थितिरनवगता देवमर्त्यादिमूर्तेजीवात्मानुप्रवेशाज्जगति विभुरपि व्याकरोन्नामरूपे । ( तत्त्वमुक्ताकलापः ४१८२ ) इति ।
१२ स० सं०