SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 703
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६६ सर्वदर्शनसंग्रहे भाग खड़े होते हैं, अन्य पुरुषों के प्रति प्रवृत्त होते हैं अतः इनका प्रमाण- प्रमेय आदि व्यवहार पशुओं के समान ही है । जब तक ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं होता उनका मोह दूर नहीं होता । ] भामतीकर ( वाचस्पति मिश्र ) ने भी कहा है - ' शास्त्रचिन्तक ( ब्रह्म साक्षात्कार-हीन किन्तु श्रवण और मनन से युक्त ) लोग ही इस तरह का विचार ( पशुवत् व्यवहार ) करते हैं, आत्मा का साक्षात्कार कर लेनेवाले ( प्रतिपत्तारः ) लोग नहीं ।' इस प्रकार यह सुस्थिर ( सिद्ध ) हो गया कि हमें जो आत्मा के रूप में प्रतीत होता है, वह वस्तुत: आत्मा के अध्यास ( शरीर पर आत्मा का अध्यास ) के रूप में है । 1 विशेष - अभी तक न्याय वैशेषिक के मत में स्वीकृत आत्मा का खण्डन करके आत्मा की अध्यासरूपता सिद्ध कर रहे थे । अब जैन-मत की आत्मा पर विचार करते हैं । जैन लोग आत्मा (जीव ) को विभु नहीं मानते किन्तु उसका परिणाम शरीर के तुल्य है, यही मानते हैं । ऐसी दशा में 'अहमिहास्मि सदने जानान:' इस तरह की प्रतीति न्याय वैशेषिक में भले ही गौणरूप से मानी जाय कि आत्मा के विभु होने के कारण प्रादेशिकता का आरोप उस पर कैसे हो परन्तु यहाँ तो कोई वैसी बात नहीं - जितना बड़ा जीव उतना बड़ा शरीर, जहाँ शरीर वहाँ जीव । अतः प्रादेशिकता का प्रश्न सहल हो जाता है। अब इस पक्ष का विश्लेषण और खण्डन करने के लिए शंकर सन्नद्ध हो गये हैं । ( ६ ख. जैनमत में स्वीकृत जीव पर विचार ) न चार्हतमतानुसारेणाहंप्रत्ययप्रामाण्यायात्मनो देहपरिमाणत्वमङ्गीकरणीयमिति साम्प्रतम् । मध्यमपरिमाणस्य सावयवत्वेन देहादिवदनित्यत्वे कृतहा नाकृताभ्यागमप्रसङ्गात् । अथैतद्दोषपरिजिहीर्षया 'अवयव समुदायः आत्मा' इत्यभ्युपगम्येत तदा वक्तव्यम् । किं प्रत्येकमवयवानां चैतन्यं संघातस्य वा ? नाद्यः । बहूनां चेतनानामहमहमिकया प्रधानभावमनुभवतामैकमत्याभावेन समसमयं विरुद्ध दिक्रियतया शरीरस्यापि विशरणनिष्क्रियत्वयोरन्यतरापातात् । आप लोग ( पूर्वपक्षी ) [ अपनी युक्ति की रक्षा के लिए ] 'अहम्' की प्रतीति की प्रामाणिकता के लिए जैन - मत के अनुसार 'आत्मा शरीर के परिमाण की है' ऐसा नहीं स्वीकार कर सकते हैं । मध्यम परिमाणवाली वस्तु ( जो न सर्वाधिक परिमाण रखे और न न्यूनतम ही ) अवयवों से युक्त होती है फलतः [ आत्मा को ] शरीर आदि की तरह ही अनित्य मानना पड़ेगा । उसका परिणाम यह होगा कि कि किये गये कर्म का नाश और न किये गये फल की प्राप्ति होने लगेगी । [ यदि आत्मा अनित्य है तो उत्पत्ति-विनाशशील है । जिस आत्मा ने किसी शरीर से सम्बद्ध होकर कोई काम किया वह उसे न मिलकर
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy