________________
औलुक्य-वसनन्
३७१ ( उपादान कारण ) के विभाग से उत्पन्न हो तथा ( २ ) जो कारण और अकारण ( स्थान ) के विभाग से उत्पन्न हो । पहले हम प्रथम भेद का वर्णन करें।
कार्य ( द्वयणुक ) के द्वारा व्याप्त कारण (परमाणु ) में जो कर्म (क्रिया ) उत्पन्न होता है वह जब दूसरे अवयवों से विभाग धारण करता है, उस समय आकाश आदि देशों ( Place ) से विभाग नहीं होता। दूसरी ओर जब उसमें आकाश आदि देशों से विभाग किया जाता है तब दूसरे अवयवों से विभाग नहीं होता-यह एक स्थिर नियम है ।
विशेष-वशेषिकों के द्वारा प्रदर्शित गुणों में एक गुण विभाग ( Disjunction ) है। यह तीन प्रकार से होता है-एक पदार्थ की क्रिया से उत्पन्न होनेवाला विभाग, दोनों की क्रियाओं से होनेवाला विभाग तथा विभाग से ही उत्पन्न होनेवाला विभाग । इनके उदाहरण क्रमशः यों हैं—श्येन पक्षी से पर्वत का विभाग ( एक-क्रियाजन्य विभाग ), दो मेवों ( भेड़ों) का विभाग ( उभयक्रियाजन्य ) तथा कपाल (घड़े के टुकड़े ) और वृक्ष का विभाग करना (विभागज-विभाग )। विभागज-विभाग में भी दो द्रव्यों का पृथक्करण होता है, किन्तु उनमें पहले एक और विभाग हो जाता है। एक वस्तु (धर्मी ) के अवयवों के साथ दूसरी वस्तु ( प्रतियोगी ) का विभाग कर लेने पर उसी के आधार पर पूरे धर्मी के साथ प्रतियोगी का विभाग मानते हैं । नैयायिक इस प्रकार का विभाग स्वीकार नहीं करते। इस विभागज विभाग के दो भेद हैं
विभागजस्तृतीयः स्यात्तृतीयोऽपि द्विधा भवेत् ।
हेतुमात्रविभागोत्यो हेत्वहेतुविभागजः ॥ (भा० ५० १२०)। सिद्धान्तमुक्तावली में इनकी विवेचना बहुत सरल और संक्षिप्त रूप से हुई है।
१.कारणमात्र विभागजन्य-पहले कपाल में क्रिया उत्पन्न होती है, फिर दो कमालों का विभाग होता है, फिर घट का आरम्भ करनेवाले संयोग का नाश होता है, फिर घट का नाश होता है। अब उसी कपाल-विभाग के द्वारा पूर्वोक्त क्रियायुक्त कपाल का बाकाश के साथ विभाग उत्पन्न होता है । पुनः आकाशसंयोग का नाश होकर अन्त में कर्म का नाश होता है। तात्पर्य यह निकला कि कर्म पहले एक प्रकार का विभाग ( कपालद्वयविभाग ) उत्पन्न कर देता है तब इस विभाग के द्वारा दूसरा विभाग ( आकाश अर्थात् स्थान से कपाल का विभाग) उत्पन्न होता है । इस प्रक्रिया में दो विभाग हुए-१. अवयवों से विभाग तथा २. देशान्तर ( दूसरे स्थान ) से विभाग । ये दोनों एक साथ नहीं रहते। केवल पूर्वापर का ही नहीं, इन दोनों के बीच कुछ क्षणों का अन्तर है।
हम ऐसी शंका नहीं कर सकते कि जिस पहले कर्म से दो अवयवों का विभाग किया गया है उसी से कपाल का आकाश या देशान्तर के साथ विभाग उत्पन्न होना क्यों नहीं मान लेते हैं ? कारण यह है कि एक ही कर्म आरम्भक ( उत्पादक ) संयोग के विरोध में