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________________ पातञ्जल-दर्शनम् ५५९ लिए ( उसे मुक्त करने के लिए ) आपको परमेश्वर को सत्ता माननी पड़ती है ? उसका उत्तर दिया जाता है---जो सत्त्वगुण बुद्धि के रूप में परिणत ( विकसित ) होता है वही तप्त किया जाता है और उसे तप्त करनेवाला है रजोगुण । इस प्रकार सत्व के परितप्त होने पर, उसी ( बुद्धितत्त्व ) पर अपना आरोपण करके, उसके साथ अभेद सम्बन्ध समझनेवाला पुरुष भी सन्तप्त हो रहा है, ऐसा लोग कहते हैं [ आशय यह है-जीव स्वयं न तो तप्त होता है न दूसरे को तप्त ही करता है। [ किन्तु बुद्धिगत सत्त्वांश तप्त होता है और रजोगुण का अंश तप्त करता है। एक तप्य है दूसरा तापक। चूं कि बुद्धि प्रधान का परिणाम है तथा प्रधान में तीन गुण हैं अतः वे तीनों गुण बुद्धि के रूप में भी परिणत होते हैं । जीव स्वयं तो तप्य नहीं हो सकता क्योंकि वह क्रिया से रहित है तथा परिणाम भी उसमें नहीं होता । अतः क्रिया से उत्पन्न फलों के आश्रय-कर्म की सम्भावना उसमें है ही नहीं। बुद्धि के संतप्त होने पर मढ़ लोग समझते हैं कि प्रतिबिम्ब के रूप में उसी की तरह का पुरुष भी अनुतप्त हो रहा है । यद्यपि बुद्धि और जीव में भेद है किन्तु वे बुद्धि के धर्मों को अपने ऊपर आरोपित कर देते हैं । विद्वानों की दृष्टि से पुरुष पर भोक्ता होने का प्रतिबिम्ब तो पड़ता ही है । अतः बुद्धिगत दुःख को ही हटाने के लिए प्रयत्न किया जाता है। ] ऐसा ही आचार्यों ने कहा है-'बुद्धि के रूप में परिणत होनेवाला ( प्रधान के विकार के रूप में स्थित बुद्धि ) सत्व ही तप्य होता है। जो पदार्थ रजोगुण से सम्बद्ध हैं वे ही तापक हैं । तप्य ( अर्थात् बुद्धिगत सत्त्वांश ) के साथ अभेद ग्रहण करनेवाली जो तामसी ( अज्ञानमूलक ) मनोवृत्ति है उसी पर [ अभेद का आरोपण करने से ] आत्मा अर्थात् जीव ही तप्य है, ऐसा प्रयोग किया जाता है।' [ सारांश यह है कि बुद्धि के गुणों के तप्य, तापक होने से उन गुणों का जीव पर आरोप करके कहा जाता है कि जीव ही सन्तप्त हो रहा है।] पञ्चशिखेनाप्युक्तम्-अपरिणामिनी हि भोक्तृशक्तिरप्रतिसंक्रमा च परिणामिन्यर्थे प्रतिसंक्रान्तेव तद्वत्तिमनुपततीति। भोक्तृशक्तिरिति चिच्छक्तिरुच्यते । ता चात्मैव । परिणामिन्यर्थे बुद्धितत्त्वे प्रतिसंक्रान्तेव प्रतिबिम्बितेव तद्वत्तिमनुपततीति बुद्धौ प्रतिबिम्बिता सा चिच्छक्तिबुद्धिच्छायापत्त्या बुद्धिवृत्त्यनुकारवतीति भावः । ___ पंचशिखाचार्य ने भी कहा है-'भोक्ता की शक्ति ( बुद्धि-शक्ति धारण करनेवाला पुरुष) स्वयं परिणत या विकृत नहीं हो सकती, इसका प्रतिसंक्रमण (विकार उत्पन्न करने के लिए दूसरी वस्तु से संयोग ) भी नहीं हो सकता-फिर भी परिणत हो सकनेवाली वस्तुओं पर मानों प्रतिबिम्बित होती है तथा उसकी वृत्तियों ( धर्मों ) का अनुसरण भी - एती है।' ( यो० सू० २।२० पर व्यास भाष्य में उद्धृत )। भोक्ता को शरि को ही चित् शक्ति
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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