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पूर्णप्रज्ञ-दर्शनम्
२३७ दें-उसे ऐसी अवस्था में रोते-कलपते देखकर कोई दयालु पुरुष बन्धन से छुड़ा दे और कह दे कि इस दिशा में गान्धार देश है, चले जाओ, वह धनी भी गाँव-गाँव घमते हए गान्धार पहुँच जाता है; ठीक उसी प्रकार कर्मरूपी चोरों के द्वारा जीव का सारा ज्ञान छीन लिया जाता है और वह जीव शरीररूपी जंगल में छोड़ दिया जाता है, कोई दयाल सद्गुरु उसे उपदेश देते हैं और वह श्रवण, मनन आदि साधनों से होते हुए अपनी जन्मभूमि अर्थात् भगवान् को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार वृक्ष के शरीर में स्थित जीव भगवान के अधीन है, वैसे ही मनुष्य के शरीर में भी अनुमान कर लें, यह चतुर्थ खण्ड का तात्पर्य यहाँ भी कहा है। अब मनुष्य के शरीर में ही जीव की ईश्वराधीनता का अनुभव होता है । इसके लिए अष्टम खण्ड में लिखते हैं ।
(८) अष्टम खण्ड में कहा है कि, मनुष्य की जब मृत्यु निकट आती है, तब वाणी आदि का नाश होने से वह कुछ बोल नहीं पाता, निकट आये हुए बन्धु-बान्धवों को भी नहीं पहचानता । ईश्वराधीन होने के कारण जीव भी उसी दशा का अनुभव करता है।
(९) नवम खण्ड में कहा है कि जिस चोर पर राजा को सन्देह है, उसके यह कहने पर भी कि मैंने चोरी नहीं की है, राजाधिकारी लोग परीक्षा के लिए गर्म लोहा उसके हाथ पर रखते हैं। झूठ बोलनेवाला चोर जल जाता है, सत्य बोलनेवाला सत्य के द्वारा व्यवधान पड़ने से नहीं जलता। इसी तरह तत्त्व को जाननेवाला भी मुक्त हो जाता है, दूसरे लोग बन्धन में रहते हैं । परमात्मा को भेद-रूप में जाननेवाला ही तत्त्वज्ञानी है। ___इस प्रकार नवों स्थानों में भेद का ही प्रतिपादन है । पक्षी और सूते में, विभिन्न वृक्षों के रसों में, नदी और समुद्र में, जीव और वृक्ष में, बटवृक्ष और सूक्ष्म बीजों में, नमक और पानी में, गान्धार और पुरुष में, मरणासन्न और उसके बन्धुओं में तथा चोर और वस्तु में ऐक्य हो नहीं सकता । विशेष के लिए छान्दोग्योपनिषद् ही देखें।
( ११ ख. उक्त नव दृष्टान्तों से भेद-सिद्धि ) तथा च महोपनिषद्
३४. यथा पक्षी च सूत्रं च नानावृक्षरसा यथा। - यथा नद्यः समुद्राश्च यथा जीवमहीरहौ ॥ ३५. यथाणिमा च धाना च शुद्धोदलवणे यथा ।
चोरापहायौ च यथा यथा विषयावपि ॥ ३६. यथाज्ञो जीवसङ्घश्च प्राणादेश्च नियामकः।
तथा जीवेश्वरौ भिन्नौ सर्वदेव विलक्षणौ ॥ ३७. तथापि सूक्ष्मरूपत्वान्न जीवात्परमो हरिः ।
भेदेन मन्ददृष्टीनां दृश्यते प्रेरकोऽपि सन् ॥ ३८. वलक्षण्यं तयोर्ज्ञात्वा मुच्यते बध्यतेऽन्यथा ॥ इति ॥