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सर्वदर्शनसंग्रहे
नहीं जानते । वेसे ही जीव भी अपने आश्रय को नहीं जानते । वास्तव में आश्रय तो है ही । इस प्रकार 'जहाँ भेद नहीं दिखलायी पड़ता, वहाँ भेद है ही नहीं'- इस नियम का उल्लंघन हआ । भेद नहीं दिखलायी पड़ने पर भी भेद की सत्ता रह सकती है। फिर भी शंका हो सकती है कि चेतन पदार्थों में तो यह नियम रहेगा ही कि भेद न दिखलायी पड़ने पर भेद नहीं हो । इसका उत्तर आगे है।
(३) तृतीय खण्ड में कहते हैं कि जैसे गंगा, यमुना आदि नदियों की चेतन देवियाँ संमुद्र में चली जाने पर यह नहीं जानतीं, कि मैं गंगा हूँ, वह यमुना, और मेघ के द्वारा समुद्र से निकल जाने पर भी अपना अस्तित्व नहीं जानतीं, मेघ से पृथ्वी पर गिरने पर भी अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रखतीं, उसी प्रकार जीव भी जागृति-सुषुप्ति में आश्रय का ज्ञान नहीं रखता । परन्तु मध्व के अनुसार भेद तो है ही। इस प्रकार चेतन पदार्थों में भी उस नियम का उल्लंघन होता है। फिर भी शंका होगी कि ईश्वर जीव से भिन्न होने पर भी जीव को अपने अधीन कैसे रखेगा ?
(४) चतुर्थ खण्ड में इसका उत्तर है । वृक्ष के मूल में, बीच में, आगे में या कहीं भी आघात होने पर केवल रस का स्राव ( Flow ) होता है, वृक्ष ही नहीं सूख जाता । कभी-कभी तो बाहरी कारण के अभाव में भी वृक्ष सूख जाता है-यह जीव के अधीन नहीं है । जीव तो सदा सुख ही चाहता है । जैसे वृक्ष के शरीर में रहनेवाला जीव ईश्वर के अधीन है वैसे ही मनुष्यादि के शरीर में रहनेवाला जीव भी ईश्वराधीन ही होगा। इससे भेदवादी जीव से भिन्न, जीवाश्रय के रूप में ईश्वर की सिद्धि करते हैं। फिर भी अद्वैतवादी शंका करेंगे कि किस कारण से ईश्वर का ज्ञान जीव को नहीं होता ? |
(५) पञ्चम खण्ड में इसके समाधान के लिए कहा है कि जैसे वटवृक्ष के फल को तोड़ने पर सूक्ष्म बीज दिखाई पड़ते हैं । इन बीजों के तोड़ने पर कुछ भी दिखलाई नहीं पड़ता क्योंकि ये बीज के बीज और भी सूक्ष्म हैं । किन्तु इन सूक्ष्मतर बीजावयवों से ही विशाल वटवृक्ष उत्पन्न होता है। ईश्वर भी जीव की अपेक्षा परम सूक्ष्म होने के कारण ज्ञात नहीं होता। सूक्ष्म अवयवों ( कारण ) को न देखने पर भी हम वटवृक्ष ( कार्य ) को देख सकते हैं। वैसे ही कार्यरूप संसार को देखने पर भी कारण-स्वरूप ईश्वर को नहीं देख सकते । पर इस पर विश्वास कैसे करें ?
(६.) षष्ठ खण्ड में उतर दिया गया है कि पानी में डालने पर नमक जब विलीन हो जाता है तब कहीं दिखलायी नहीं पड़ता, त्वचा ( Skin ) से भी स्पर्श का अनुभव नहीं होता, हाँ, जीभ से उसे जान सकते हैं । जैसे लवण के गुण ( रस ) का अनुभव करने पर भी लवण दिखलायी नहीं पड़ता, वैसे ही ईश्वर की सामर्थ्य का दर्शन होने पर भी ईश्वर दिखलायी नहीं पड़ता । फिर ऐसे अत्यन्त सूक्ष्म ईश्वर को जानते और पाते कैसे हैं ?
(७) सप्तम खण्ड में कहा है कि जैसे गान्धार देश के एक धनी निवासी को चोर मिलकर हाथ-पैर बांध दें, आँखों पर पट्टी बाँध दें और सब कुछ छीनकर जंगल में छोड़