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________________ पूर्णप्रज-वर्शनम् २३५. वे कहते हैं-] या यह भी सम्भव है कि 'तत्त्वमसि' में [ इसके पूर्व ] उसी आत्मा ( परमात्मा ) का अर्थ हो जो स्वतन्त्रता आदि गुणों से युक्त है। [ किन्तु इसके बाद ] 'अतत् त्वम् असि' का अर्थ यही है कि तुम वही ( परमात्मा ) नहीं हो क्योंकि स्वतन्त्रता आदि वे गुण तुममें नहीं हैं। इसलिए दोनों की एकता का निराकरण अच्छी तरह किया गया है। जैसा कि कहते हैं-'अतत् त्वम्' के रूप में छेद करें जिससे [ जीव और ईश्वर की ] एकता अच्छी तरह निराकृत कर दी जाय । [फिर भी प्रश्न हो सकता है कि छान्दोग्योपनिषद् में जहाँ से यह वाक्य लिया गया है वहाँ पर तो नव उदाहरणों से सिद्ध किया गया है कि जीव और ईश्वर एक हैं-तत् त्वम् असि । इसके उत्तर में वे कहते हैं-] इसीलिए नवों दृष्टान्तों के द्वारा, 'जैसे पक्षी सूते में बंध जाने पर' इत्यादि ( छा० ६।८।३ ) वाक्यों से भेद का प्रतिपादन है, दृष्टान्त देकर येह समझाया गया है कि इनमें अभेद ( अद्वैत ) का उपदेश नहीं है-ऐसा तत्त्ववादरहस्य में कहा गया है। . विशेष-छान्दोग्योपनिषद् के छठे अध्याय में सद्विद्या का प्रकरण है। वहाँ आठवें खण्ड से आरम्भ करके सोलहवें खण्ड तक (कुल नव खण्डों में ) प्रत्येक खण्ड में एक-एक उदाहरण देकर अन्त में 'आत्मा तत्त्वमसि' निष्कर्ष निकाला गया है। वहाँ स्पष्ट रूप से ऐक्य का प्रतिपादन है, पर मध्व भेद स्वभाव के कारण दृष्टान्तों को भेद-प्रतिपादक मानते हैं । उन दृष्टान्तों का अवलोकन करें। (१) प्रथम खण्ड में यह कहा गया है कि सुषुप्ति अवस्था ( Sleep ) का अनुभव सभी प्राणी करते हैं । इसी अवस्था में जीव सद्रूप ( Having reality as essence ) ब्रह्म से सम्पन्न होता है । इसके लिए दृष्टान्त है-जैसे व्याध के हाथ में स्थित रस्सी में बंधा हुआ पक्षी बन्धन से बचने के लिए इधर-उधर गिरकर कहीं आश्रय न पाकर फिर बन्धन में ही लौट आता है, उसी प्रकार जीव भी स्वप्न और जागृति की अवस्था में इधरउधर गिरकर कहीं विश्रान्ति न पाने पर सुषुप्ति अवस्था में सद्रूपी ब्रह्म का ही आश्रय लेता है। मध्व कहते हैं कि इस दृष्टान्त में आश्रय-आश्रित का भेद है, यह शकुनि (पक्षी) और सूते के उदाहरण से स्पष्ट किया गया है । अतः ब्रह्म और जीव में भी भेद है। वही ‘स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो' कहकर दिखलाया गया है। [ उद्दालक अपने पुत्र श्वेतकेतु को यह समझाते हैं। ] (२) द्वितीय खण्ड में यह बतलाया गया है-'इस शरीर में जीव को आश्रय देनेवाला उसे भिन्न कोई पदार्थ नहीं है क्योकि भेदरूप में किसी ऐसे पदार्थ की उपलब्धि नहीं होती।' इस शंका के निवारण के लिए दृष्टान्त है-जैसे भौंरे नाना प्रकार के वृक्षों के फूलों का रस लाकर एकत्र करते हैं तब मधु बनता है। उसके रस भिन्न होने पर भी यह नहीं जानते कि मैं इस फल का रस हूँ, वह उस फूल का इस प्रकार वे आपसी भेद
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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