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________________ ५७६ सर्वदर्शनसंग्रहे ये तीनों अनेकार्थं माने गये हैं, उनके पाठों में जो उदाहरण मिलते हैं [ वे ही इसके प्रमाण हैं । ]' अत एव केचन युजि समाधावपि पठन्ति - 'युज समाधी' ( पा० धातुपाठ, दि० ७१, आत्मने० ) इति । नापि याज्ञवल्क्यवचनव्याकोपः । तत्रस्थस्यापि योगशब्दस्य समाध्यर्थत्वात् । ५. समाधिः समतावस्था जीवात्मपरमात्मनोः । ब्रह्मण्येव स्थितिर्या सा समाधिः प्रत्यगात्मनः ॥ इति तेनोक्तत्वाच्च । तदुक्तं भगवता व्यासेन ( योग भा० १1१ ) योगः समाधिरति । इसलिए कुछ लोग ( पाणिनि आदि ) युज् - धातु का अर्थ समाधि भी मानते हैं और तदनुसार उनके धातुपाठ में मिलता भी है- 'युज समाधी' ( दिवादि ७१, आत्मनेपद ) । याज्ञवल्क्य की बात का भी इससे खण्डन नहीं होता । याज्ञवल्क्य के उपर्युक्त वाक्य में भी योग- शब्द समाधि के अर्थ में ही है । [ जीव और परमात्मा का संयोग अर्थात् सम्यक् योग = साम्यावस्था ही योग ( = समाधि ) कहलाता है । बुद्धि आदि कल्पित उपाधियों से युक्त धर्मों को छोड़कर स्वाभाविक अनासक्ति के रूप में जीव की, परमात्मा की तरह, अवस्थित हो जाने को साम्यावस्था कहते हैं । इसी का प्रतिपादन 'निरञ्जनः परमं साम्यमुपेति' ( मुं० ३|१|३ ) इत्यादि श्रुतियों में हुआ है, यही मुक्ति है । ] याज्ञवल्क्य स्वयं कहते हैं - 'जीवात्मा और परमात्मा की साम्यावस्था समाधि है । जीवात्मा की जब स्थिति ब्रह्म में हो जाय वही समाधि है।' इसे व्यास ने भी भाष्य ( योगभाष्य २1१ ) में कहा है- योग समाधि को ही कहते हैं । ( ७ क. योग का अर्थ समाधि -आपत्ति ) नन्वेवमष्टाङ्गयोगे चरमस्याङ्गस्य समाधित्वमुक्तं पतञ्जलिना ( पात० यो० सू० २।२९ ) - यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसम:धयोऽष्टावङ्गानि योगस्य' इति । न चाङ्गी एवाङ्गतां गन्तुमुत्सहते । उपकार्योपकारकभावस्य दर्शपूर्णमासप्रयाजावी भिन्नायतनत्वेनात्यन्तभेदात् । अतः समाधिरपि न योगशब्दार्थो युज्यत इति चेत् । इस प्रकार एक शंका हो सकती है। ऐसा होने पर योग के आठ अंगों में अन्तिम अंग को जो पतञ्जलि ने समाधि कहा है, इसका क्या उत्तर होगा ?' सम्बद्ध सूत्र यह है- 'यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि – ये योग के आठ अङ्ग हैं' ( योगसूत्र २।२९ ) । अंगी ( योग ) अंग नहीं बन समाधि लेते हैं तब तो योग या समाधि ही अंगी है जिसके आठ अङ्ग हैं । पुनः समाधि को सकता । [ यदि योग का अर्थ
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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