SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 612
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पातञ्जल-पर्शनम् ५७५ तदेतद्वार्तम् । जीवपरयोः संयोगे कारणस्यान्तरकर्मादेरसम्भवात् । अजसंयोगस्य कणभक्षाक्षचरणादिभिः प्रतिक्षेपाच्च। मीमांसकमतानुसारेण तदङ्गीकारेऽपि नित्यसिद्धस्य तस्य साध्यत्वाभावेन शास्त्रवैफल्यापत्तश्च । धातूनामनेकार्थत्वेन युजेः समाध्यर्थत्वोपपत्तेश्च । तदुक्तम् ४. निपाताश्वोपसर्गाश्च धातवश्चेति ते त्रयः। अनेकार्थाः स्मृताः सर्वे पाठस्तेषां निदर्शनम् ॥ इति । [उक्त शंका ] निस्सार है, क्योंकि जीवात्मा और परमात्मा के संयोग के लिए कारण के रूप में उन दोनों में किसी में भी क्रिया आदि का होना असम्भव है। [ न तो जीवास्मा ही चल सकता है न परमात्मा, अतः दोनों का संयोग ही नहीं होगा। संयोग होने के तीन प्रकार हैं-(१) दो संयोगी पदार्थों में किसी एक की क्रिया से उत्पन्न संयोग, जैसे-पक्षी के बैठने से वृक्ष और पक्षी का संयोग । (२) दोनों पदार्थों की क्रिया से उत्पन्न संयोग-दो पहलवानों का संयोग, (३) संयोग से उत्पन्न संयोग, जैसे-हाथ और वृक्ष के संयोग से शरीर और वृक्ष का संयोग । यह भेद काल्पनिक है। जीव और परमात्मा में कोई भी भेद सम्भव नहीं, क्योंकि वे विभु हैं । ] [अब यदि आपलोग दोनों के संयोग को नित्य मानकर उक्त कठिनाई से बच जाना चाहते हैं तो हम कहेंगे कि ] नित्य संयोग को तो कणाद और गौतम आदि ऋषियों ने ही नहीं माना है । [ संयोग की नित्यता संयोगी पदार्थों की नित्यता पर भी निर्भर करती है। इस दृष्टि से घट और पट का या घट और आकाश का संयोग नित्य नहीं है। दोनों संयोगियों के नित्य होने पर भी संयोग की अनित्यता देखते हैं । दो परमाणु नित्य हैं पर उनका संयोग तो अनित्य है । वास्तव में संयोग एक क्रिया है जिसकी उत्पत्ति होती है, विनाश होता है । दो संयोगियों में एक विमु रहने पर भी स्थान का भेद तो होगा ही और संयोग की उत्पत्ति नये प्रकार से होती रहेगी-अतः संयोग कार्य ही बना रहेगा। दोनों संयोगियों के विभू होने पर संयोग नित्य होगा किन्तु ऐसे संयोग से काम ही क्या होगा? कार्य भी नित्य ही रहेगा । उस संयोग के लिए चेष्टा ही क्यों होगी? ऐसे सम्बन्ध को समवाय कहते हैं । संयोग सदा अनित्य रहता है।] मीमांसकों के मतानुसार यदि नित्य संयोग स्वीकार करें तो भी इस ( नित्य संयोग ) का कोई साध्य (प्रयोजन, लक्ष्य ) नहीं मिल सकता । ( यदि जीवात्मा परमात्मा में संयोग नित्य हो तो यह हमारा लक्ष्य नहीं बन सकता, क्योंकि वह पहले से ही सिद्ध है इसके लिए प्रयत्न की आवश्यकता नहीं। ] अतः योगशास्त्र की प्रक्रियायें भी व्यर्थ हो जायेंगी। [ इससे बचने का उपाय यह है कि ] धातु अनेकार्थक होते हैं और इसीलिए युज्-धातु को समाधि के अर्थ में सिद्ध किया जा सकता है । यही कहा है-'निपात, उपसर्ग और धातु,
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy