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________________ पातञ्जल वर्शनम् ५७७ एक अंग भी मानते हैं अतः उपकारक और उपकार्य एक ही मानना पड़ता है जो सम्भव नहीं। फल यह होगा कि चित्तवृत्तिनिरोधकवाले सूत्र तथा प्रस्तुत 'यमनियम०' सूत्र में विरोध होगा। योग और समाधि में अन्तर करना ही पड़ेगा-एक अंगी ( उपकार्य ) है, दूसरा अङ्ग ( उपकारक )।] ___ दर्श-पूर्णमास ( उपकार्य, अंगी ) तथा प्रयाज ( उपकारक, अंग ) के सम्बन्ध की तरह उपकार्य और उपकारक का सम्बन्ध, दोनों के आश्रय भिन्न रहने के कारण, आत्यन्तिक भेद की अपेक्षा रखता है । इसलिए योग शब्द का समाधि अर्थ रखना युक्तियुक्त नहीं है । तन्न युज्यते। व्युत्पत्तिमात्राभिधित्सया 'तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधि:' (पात. यो० सू० ३।३) इति निरूपितचरमाङ्गवाचकेन समाधिशब्देनाङ्गिनो योगस्याभेदविवक्षया व्यपदेशोपपत्तेः । न च व्युत्पत्तिबलादेव सर्वत्रशब्दः प्रवर्तते । तथात्वे गच्छतीति गौरिति व्युत्पत्तैस्तिष्ठन्गौर्न स्यात् । गच्छन्देवदत्तश्च गौः स्यात् । [ उक्त शंका का समाधान-] यह तर्क ठीक नहीं है । केवल व्युत्पत्ति ( प्रकृति और प्रत्यय से उत्पन्न अवयवार्थ ) जनित अर्थ कहने का इच्छा से ही-'उस ध्यान में हो जब केवल दृश्य अर्थ की प्रतीति होती है तथा जो अपने किसी भी रूप से शून्य हो जाता है तब उसे समाधि कहते हैं' (यो० सू० ३।३)-इस सूत्र में निरूपित अन्तिम अङ्ग के वाचक समाधि शब्द से अङ्गी योग शब्द का अभेद बतलाने के लिए ही व्यास ने वैसा ( योगः समाधिः ) कहा है। [ व्यास ने अपने भाष्य में योग का व्युत्पत्तिजन्य अर्थ ही समाधि को बतलाया है। व्यावहारिक अर्थ जिसे प्रवृत्तिनिमित्त भी कहते हैं, तो कुछ दूसरा ही हैचित्तवृत्ति का निरोध । व्युत्पत्तिजन्य अर्थ भी कुछ देना ही था, इसीलिए समाधि का पीछा किया गया। ऐसी बात नहीं कि समाधि ही योग का सदा के लिए अर्थ है। व्युत्पत्तिजन्य अर्थ का जो अधिकार है वही इसे भी प्राप्त है। ] ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि शब्द की प्रवृत्ति ( व्यवहार ) सब जगह व्युत्पत्ति के बल से ही होती है। यदि ऐसा हुआ करता तब तो 'गौ' जानेवाली वस्तु को ( /गम् ) कहते हैं' अतः इस व्युत्पत्ति के अनुसार गौ कभी भी स्थिर नहीं हो सकती। उधर यदि देवदत्त नाम का कोई व्यक्ति चलायमान होता तो उसे भी गौ ही कहते । [ इसलिए योग शब्द की व्युत्पत्ति से उत्पन्न अर्थ ही इसका परमार्थ या व्यवहारार्थ ( प्रवृत्तिनिमित्त ) नहीं है। यौगिक शब्दों के साथ ऐसी बात भले ही हो. क्योंकि वहाँ अवयवों का अर्थ ही प्रवृत्तिनिमित्त होता है। योगरूढ़ या रूढ़ शब्दों में तो व्युत्पत्तिनिमित्त की अपेक्षा प्रवृत्तिनिमित्त हो प्रधान रहता है। उसी के अनुसार शब्द का प्रयोग होता है। 'गो' शब्द का प्रवृत्तिनिमित्त ( व्यवहारार्थ ) है 'गोत्व', जबकि व्युत्पत्तिजन्य अर्थ है गमन क्रिया का आधार । 'गो' शब्द का व्यवहार व्युत्पत्तिजन्य अर्थ के अनुसार नहीं होता । उसी तरह 'योग' शब्द का व्यवहार ३७ स० सं०
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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