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________________ १३७ आहेत-दर्शनम् तदेतदास्रवभेदप्रभेदजातं, 'कायवाङ्मनःकर्मयोगः । स आस्रवः । शुभः पुण्यस्य । अशुभः पापस्य' (त० सू० ६।१-४) इत्यादिना सूत्रसन्दर्भेण ससंरम्भमभाणि । अपरे त्वेवं मेनिरे-आस्रवयति पुरुषं विषयेष्विन्द्रियप्रवृत्तिरानवः । इन्द्रियद्वारा हि पौरुषं ज्योतिः विषयान्स्पृशद् रूपादिज्ञानरूपेण परिणमत इति । उस ( योग ) के दो भेद हैं-शुभ और अशुभ। अहिंसा आदि शुभ काययोग हैं। सत्य बोलना, मित ( आवश्यकतानुसार ) बोलना, हित करनेवाली बातें बोलना आदि शुभ वाग्योग है । अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु नामक इन पांच परमेष्ठियों में भक्ति रखना, तपस्या में रुचि होना, शास्त्र ( श्रुत ) का शिक्षण ( विनय ) इत्यादि शुभ मनोयोग हैं। इसके विपरीत तीन तरह के अशुभ योग हैं। [ प्राण लेना, चोरी करना, मेथुन आदि अशुभ काययोग है । झूठा, कठोर, असभ्य आदि भाषण करना अशुभ वाग्योग है । वध का चिन्तन, ईर्ष्या, असूया आदि अशुभ मनोयोग है। ] आस्रव के इन भेद-प्रभेदों का वर्णन इन सूत्रों में प्रयत्नपूर्वक किया गया है-'काय, वाक् और मन-ये कर्म के द्वारा योग ( आत्मप्रदेश सञ्चलन ) है ।' यही आस्रव है।' 'पुण्य के लिए शुभ [ योग है ] । पाप के लिए अशुभ [ योग ] ।' (त० सू० ६।१-४) । लेकिन दूसरे लोग ऐसा मानते हैं-'जो पुरुष को विषयों की ओर बहाकर ले 'जाय अर्थात् इन्द्रियों की प्रवृत्ति, उसे ही आस्रव कहते हैं।' इन्द्रियों के द्वारा ही पुरुषों की ज्योति विषयों का स्पर्श करती है तथा रूपादि के ज्ञान के रूप में परिणत हो जाती है। (२१ क. बन्ध का निरूपण ) मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषायवशाद्योगवशाच्चात्मा सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहिनामनन्तप्रदेशानां पुदगलानां कर्मबन्धयोग्यानामादानमुपश्लेषणं यत्करोति स बन्धः । तदुक्तं-सकषायत्वाज्जीवः कर्मभावयोग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः ( त० सू० ८।२) इति । ____ जब मिथ्या-दर्शन, अविरति ( आसक्ति ), प्रमाद ( असावधानी ) और कषाय ( पाप ) के कारण तथा योग के भी कारण आत्मा उन पुद्गलों का आदान अर्थात् आलिंगन करती है जो पुद्गल ( शरीर, Matter ) अपने सूक्ष्म क्षेत्र (रूप ) में प्रवेश करते हैं, अनन्त (सभी ) स्थानों में निवास करते हैं तथा [ अपने पूर्वकृत ] कर्मों के बन्धन में पकने लायक होते हैं--इसी क्रिया का नाम बन्ध ( Bondage ) है। यह कहा भी है—'सकषाय रहने के कारण जीव [ अपने पहले के किये हुए ] कर्मों के भाव ( परिणाम ) के अनुकूल पुद्गलों ( शरीरों) को ग्रहण करता है, वही बन्ध है ( त० सू० ८।२)।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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