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________________ जैमिनि-दर्शनम् ४५९ शालिकनाथ ( ७९० ई० ) के मत के स्पष्टीकरण के लिए नयविवेक नामक ग्रन्थ की रचना की, जिसमें अधिकरणों की व्याख्या है ( ९०० ई० ) । इस ग्रन्थ की चार टीकाएं उपलब्ध हैं- रन्तिदेव का विवेकतत्त्व, वरदराज की नयविवेकदीपिका, शंकर मिश्र की पंचिका तथा दामोदर का नयविवेकालंकार । रामानुजाचार्य ( ११५० ई० ) का तन्त्ररहस्य बहुत सरल तथा स्पष्ट पुस्तक है जो गुरुमत का प्रवेशक है । अपने उदारवादी दृष्टिकोण के कारण भाट्टमत के सामने गुरुमत नहीं ठहर सका । मुरारि मत के प्रवर्तक मुरारि मिश्र का नाम गंगेश तथा वर्धमान ने अपने ग्रन्थों में लिया है, परन्तु ये अत्यन्त अल्पज्ञात आचार्य हैं। दो पुस्तकें - त्रिपादीनीतिनयन तथा एकादशाध्यायाधिकरण - इनके नाम से मिली हैं । सम्भवतः इनका समय १२ वीं शताब्दी में हो। इनके नाम पर लोकोक्ति भी चल पड़ी है - मुरारेस्तृतीयः पन्थाः । अत एवोक्तं मनुना मुनिना - ३. उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विजः । साङ्गं च सरहस्यं च तमाचार्यं प्रचक्षते ॥ ( मनु० २।१४० ) इति । ततश्वाचार्यकर्तृकमध्यापनं माणवककर्तृकेनाध्ययनेन विना न सिध्यतीत्यध्यापनविधिप्रयुक्त्यैवाध्यय नानुष्ठानं सेत्स्यति । प्रयोज्यव्यापारमन्तरेण प्रयोजकव्यापारस्यानिर्वाहात् । इसलिए महर्षि मनु ने कहा है- 'जो द्विज ( ब्राह्मण ) शिष्य का उपनयन करके उसे वेदांगों और रहस्य ( उपनिषद् ) के साथ वेद पढ़ाता है उसे ही आचार्य कहते हैं ।' ( मनुस्मृति २।१४० ) । [ उपनयन के बाद अध्यापन करने से आचार्य में कुछ अतिशय की उत्पत्ति होती है । यही अतिशय अध्यापक को आचार्य बनाता है । यद्यपि उपनिषदें वेद के अन्तर्गत ही हैं तथापि प्रधानता दिखलाने के लिए उनका निर्देश पृथक् किया गया है । मेधातिथि का कहना है कि उपनिषदें वेदान्त के नाम से प्रसिद्ध हैं । कितने लोग वेदान्त का अर्थ 'वेद के पास होना' कर लेते हैं अतः उनके वेद न होने की भ्रान्ति हो जाती है । यही कारण है कि रहस्य शब्द का भी ग्रहण किया गया है । अध्ययन न के अनुष्ठान की लिए तो है । तो आचार्य का अध्यापन तब तक सिद्ध नहीं होता जब तक कोई शिष्य करे । इसलिए अध्यापन विधि ( वेदमध्यापयीत ) के प्रयोग से ही अध्ययन सिद्धि हो जायगी । [ अध्ययन के लिए विधि हो या नहीं हो, अध्यापन के जब तक अध्ययन करनेवाला कोई नहीं हो आचार्य अध्यापन क्या करेंगे ? अध्यापन की विधि ही अध्ययन की सिद्धि कर देगी क्योंकि ] प्रयोज्य ( = शिष्य ) के व्यापार के बिना प्रयोजक का व्यापार नहीं चल सकता । [ अध्यापन - योग्य शिष्य के रहने पर ही अध्यापक की क्रिया चल सकती है । ]
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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