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________________ ४६० सर्वदर्शनसंग्रहतहि 'अध्येतव्यः' (त० आ० २११५) इत्यस्य विधित्वं न सिध्यतीति चेत्-मा सत्सीत्का नो हानिः ? पृथगध्ययनविधेरभ्युपगमे प्रयोजनाभावात् । विधिवाक्यस्य नित्यानुवादत्वेनाप्युपपत्तेः। तस्मादध्ययनविधिमुपजीव्य पूर्वमुपन्यस्तो पूर्वोत्तरपक्षी प्रकारान्तरेण प्रदर्शनीयो। विचारशास्त्रमवैधत्वेनानारब्धव्यमिति पूर्वपक्षः । वैधत्वेनारब्धव्यमिति राद्धान्तः। तब यदि यह शंका हो कि 'अध्येतव्यः' (ते. आ० २।१५)-यह वाक्य विधि के रूप में नहीं सिद्ध होगा, तो मत सिद्ध हो, हमारी हानि इसमें क्या है ? [ अध्यापन-विधि के अन्तर्गत ही अध्ययन चला आता है, अतः 'अध्येतव्यः' को तो विधि नहीं कह सकेंगे क्योंकि विधि होने पर इसे विधि को आवश्यक शतों की पूर्ति करनी होगी-यह अज्ञातज्ञापक या अप्रवृत्तप्रवर्तक हो, किन्तु अध्ययन का ज्ञान या इसकी प्रवृत्ति पहले ही अध्यापन-विधि के द्वारा हो चुकी है । अतः यह वाक्य विधि नहीं है । ] अलग से अध्ययन के लिए विधि मानने का कोई प्रयोजन ( कारण ) नहीं है । कहीं-कहीं विधि-वाक्य ( विधायक के रूप में प्रतीत होनेवाला वाक्य ) नित्य से प्राप्त वस्तु का अनुवाद ( आवृत्ति, पुष्टि ) करता है, यह भी देखा जाता है ( सम्भवतः ‘अध्येतव्यः' भी किसी का अनुवादक ही हो)। इसलिए अध्ययन-विधि को आधार मानकर इसके पहले दिये गये पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष, दोनों को दूसरे प्रकार से प्रदर्शित करना चाहिए । इसमें पूर्वपक्ष यह रखते हैं कि विचार-शास्त्र विधि-सम्मत नहीं है, अतः उसका आरम्भ नहीं करना चाहिए। उत्तरपक्ष में कहते हैं कि यह शास्त्र विधिसम्मत है, अत: उसका आरम्भ करें। (६ क. प्रभाकरके मत से पूर्वपक्ष) तत्र वैधत्वं वदता वदितव्यं-किमध्यापनविधिर्माणवकस्यार्थावबोधमपि प्रयुङ्क्ते, किं वा पाठमात्रम् ? नाद्यः, विनाप्यर्थावबोधेनाध्यापनसिद्धः। न द्वितीयः। पाठमात्रे विचारस्य विषयप्रयोजनयोरसम्भवात् । आपाततः प्रतिभातः सन्दिग्धोऽर्थो विचारशास्त्रस्य विषयो भवति । [ पूर्वपक्ष कहता है कि ] जो लोग विचारशास्त्र को वैध (विधिसम्मत ) मानते हैं वे इसका उत्तर दें--क्या उपर्युक्त अध्यापन-विधि का लक्ष्य ( प्रयोग ) शिष्य को अर्थ का बोध करा देना भी है या केवल पाठ ( अध्ययन ) करना भर ही ? [ अध्ययन-विधि से जो अध्ययन का अर्थ निकालते हैं उसमें अर्थबोध भी कराते हैं या केवल अध्ययन ? ] पहला विकल्प ठीक नहीं है, क्योंकि अर्थावबोध के बिना भी अध्ययन-विधि की सिद्धि हो ही जाती है। [ तात्पर्य यह है कि विधि अध्यापन से सम्बन्ध रखती है, अध्ययन से नहीं। चूंकि अध्यापन अध्ययन के बिना नहीं हो सकता, इसीलिए विवश होकर हमें अध्ययन का आक्षेप
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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