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सर्वदर्शनसंग्रहतहि 'अध्येतव्यः' (त० आ० २११५) इत्यस्य विधित्वं न सिध्यतीति चेत्-मा सत्सीत्का नो हानिः ? पृथगध्ययनविधेरभ्युपगमे प्रयोजनाभावात् । विधिवाक्यस्य नित्यानुवादत्वेनाप्युपपत्तेः। तस्मादध्ययनविधिमुपजीव्य पूर्वमुपन्यस्तो पूर्वोत्तरपक्षी प्रकारान्तरेण प्रदर्शनीयो।
विचारशास्त्रमवैधत्वेनानारब्धव्यमिति पूर्वपक्षः । वैधत्वेनारब्धव्यमिति राद्धान्तः।
तब यदि यह शंका हो कि 'अध्येतव्यः' (ते. आ० २।१५)-यह वाक्य विधि के रूप में नहीं सिद्ध होगा, तो मत सिद्ध हो, हमारी हानि इसमें क्या है ? [ अध्यापन-विधि के अन्तर्गत ही अध्ययन चला आता है, अतः 'अध्येतव्यः' को तो विधि नहीं कह सकेंगे क्योंकि विधि होने पर इसे विधि को आवश्यक शतों की पूर्ति करनी होगी-यह अज्ञातज्ञापक या अप्रवृत्तप्रवर्तक हो, किन्तु अध्ययन का ज्ञान या इसकी प्रवृत्ति पहले ही अध्यापन-विधि के द्वारा हो चुकी है । अतः यह वाक्य विधि नहीं है । ] अलग से अध्ययन के लिए विधि मानने का कोई प्रयोजन ( कारण ) नहीं है । कहीं-कहीं विधि-वाक्य ( विधायक के रूप में प्रतीत होनेवाला वाक्य ) नित्य से प्राप्त वस्तु का अनुवाद ( आवृत्ति, पुष्टि ) करता है, यह भी देखा जाता है ( सम्भवतः ‘अध्येतव्यः' भी किसी का अनुवादक ही हो)। इसलिए अध्ययन-विधि को आधार मानकर इसके पहले दिये गये पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष, दोनों को दूसरे प्रकार से प्रदर्शित करना चाहिए ।
इसमें पूर्वपक्ष यह रखते हैं कि विचार-शास्त्र विधि-सम्मत नहीं है, अतः उसका आरम्भ नहीं करना चाहिए। उत्तरपक्ष में कहते हैं कि यह शास्त्र विधिसम्मत है, अत: उसका आरम्भ करें।
(६ क. प्रभाकरके मत से पूर्वपक्ष) तत्र वैधत्वं वदता वदितव्यं-किमध्यापनविधिर्माणवकस्यार्थावबोधमपि प्रयुङ्क्ते, किं वा पाठमात्रम् ? नाद्यः, विनाप्यर्थावबोधेनाध्यापनसिद्धः। न द्वितीयः। पाठमात्रे विचारस्य विषयप्रयोजनयोरसम्भवात् । आपाततः प्रतिभातः सन्दिग्धोऽर्थो विचारशास्त्रस्य विषयो भवति ।
[ पूर्वपक्ष कहता है कि ] जो लोग विचारशास्त्र को वैध (विधिसम्मत ) मानते हैं वे इसका उत्तर दें--क्या उपर्युक्त अध्यापन-विधि का लक्ष्य ( प्रयोग ) शिष्य को अर्थ का बोध करा देना भी है या केवल पाठ ( अध्ययन ) करना भर ही ? [ अध्ययन-विधि से जो अध्ययन का अर्थ निकालते हैं उसमें अर्थबोध भी कराते हैं या केवल अध्ययन ? ] पहला विकल्प ठीक नहीं है, क्योंकि अर्थावबोध के बिना भी अध्ययन-विधि की सिद्धि हो ही जाती है। [ तात्पर्य यह है कि विधि अध्यापन से सम्बन्ध रखती है, अध्ययन से नहीं। चूंकि अध्यापन अध्ययन के बिना नहीं हो सकता, इसीलिए विवश होकर हमें अध्ययन का आक्षेप