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सर्वदर्शनसंग्रहे
दृष्टमेवेति न किश्विदनुपपन्नम् । विङ्मात्रमिह प्रदर्शितम् । विस्तरस्त्वाकरावे वावगन्तव्य इति विस्तारभीरुणोदास्यत इति सर्वमनाकुलम् ।
॥ इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे रामानुजदर्शनम् ॥
ऐसी बात नहीं है कि प्रवृत्ति या निवृत्ति में से किसी एक के न होने से कोई चीज निरर्थक हो जाती है । केवल वस्तुस्थिति ( या स्वरूप ) का निर्देश करनेवाले 'तुम्हें पुत्र उत्पन्न हुआ', 'यह साँप नहीं है' इस प्रकार के [ सिद्ध ] वाक्यों में हर्ष की प्राप्ति तथा भय का निवृत्तिरूपी प्रयोजन होता तो है ही- फिर भी कोई इन्हें असिद्ध नहीं कहता । [ तात्पर्य यह निकला कि सिद्ध-वाक्य में भी प्रयोजन रहता है । इसलिए सिद्ध-ब्रह्म के प्रतिपादन के लिए प्रवृत्त शास्त्रों में प्रवृत्ति निवृत्ति है, वे शास्त्र अर्थवान ( सप्रयोजन ) हैं - इसमें सन्देह नहीं । )
यहाँ इस दर्शन का केवल सामान्य निर्देश किया गया है, विस्तारपूर्वक सिद्धान्तों का निरूपण आकर -ग्रन्थों ( जैसे श्रीभाष्य, तत्त्वमुक्ताकलाप, यतीन्द्रमतदीपिका आदि ) से ही समझ लें । विस्तार होने के भय से अब आगे की बातें छोड़ दें, सब कुछ स्पष्ट है ।
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इस प्रकार श्रीमान् सायण - माधव के सर्वदर्शनसंग्रह में रामानुजदर्शन [ समाप्त हुआ ] | ॥ इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां व्याख्यायां रामानुजदर्शनमवसितम् ॥