SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१० सर्वदर्शनसंग्रहे दृष्टमेवेति न किश्विदनुपपन्नम् । विङ्मात्रमिह प्रदर्शितम् । विस्तरस्त्वाकरावे वावगन्तव्य इति विस्तारभीरुणोदास्यत इति सर्वमनाकुलम् । ॥ इति श्रीमत्सायणमाधवीये सर्वदर्शनसंग्रहे रामानुजदर्शनम् ॥ ऐसी बात नहीं है कि प्रवृत्ति या निवृत्ति में से किसी एक के न होने से कोई चीज निरर्थक हो जाती है । केवल वस्तुस्थिति ( या स्वरूप ) का निर्देश करनेवाले 'तुम्हें पुत्र उत्पन्न हुआ', 'यह साँप नहीं है' इस प्रकार के [ सिद्ध ] वाक्यों में हर्ष की प्राप्ति तथा भय का निवृत्तिरूपी प्रयोजन होता तो है ही- फिर भी कोई इन्हें असिद्ध नहीं कहता । [ तात्पर्य यह निकला कि सिद्ध-वाक्य में भी प्रयोजन रहता है । इसलिए सिद्ध-ब्रह्म के प्रतिपादन के लिए प्रवृत्त शास्त्रों में प्रवृत्ति निवृत्ति है, वे शास्त्र अर्थवान ( सप्रयोजन ) हैं - इसमें सन्देह नहीं । ) यहाँ इस दर्शन का केवल सामान्य निर्देश किया गया है, विस्तारपूर्वक सिद्धान्तों का निरूपण आकर -ग्रन्थों ( जैसे श्रीभाष्य, तत्त्वमुक्ताकलाप, यतीन्द्रमतदीपिका आदि ) से ही समझ लें । विस्तार होने के भय से अब आगे की बातें छोड़ दें, सब कुछ स्पष्ट है । 1 इस प्रकार श्रीमान् सायण - माधव के सर्वदर्शनसंग्रह में रामानुजदर्शन [ समाप्त हुआ ] | ॥ इति बालकविनोमाशङ्करेण रचितायां सर्वदर्शनसंग्रहस्य प्रकाशाख्यायां व्याख्यायां रामानुजदर्शनमवसितम् ॥
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy