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________________ २६६ सर्वदर्शनसंग्रहेद्वार । भस्म से स्नान, भस्म में शयन, उपहार, जप और प्रदक्षिणा–ये व्रत हैं। भगवान् नकुलीश ने कहा है-भस्म से तीन समय (प्रातः, मध्याह्न, सन्ध्या ) स्नान करे ( लेपन करे ), भस्म में ही शयन करे, इत्यादि । ____ यहाँ उपहार का अर्थ है नियमों का पालन। इसके छह अंग है जैसा कि सूत्रकार ने कहा है-हसित, गीत, नृत्य, हुडुक्कार ( एक प्रकार की ध्वनि ), नमस्कार और जप्यइस षडंग उपहार के द्वारा पूजा करे। तत्र हसितं नाम कण्ठोष्ठपुटविस्फूर्जनपुरःसरम् अहहेत्यट्टहासः । गीतं गान्धर्वशास्त्रसमयानुसारेण महेश्वरसंबन्धिगुणधर्मादिनिमित्तानां चिन्तनम् । नृत्यमपि नाटयशास्त्रानुसारेण हस्तपादादीनामुत्क्षेपणादिकमङ्गप्रत्यङ्गोपाङ्गसहितं भावाभावसमेतं च प्रयोक्तव्यम्। हुडुक्कारो नाम जिह्वातालुसंयोगाग्निष्पाद्यमानः पुण्यो वृषनादसदृशो नादः। हुडुगिति शब्दानुकारो वषडितिवत् । यत्र लौकिका भवन्ति तत्रैतत्सर्वं गूढं प्रयोक्तव्यम् । शिष्टं प्रसिद्धम् । हसित ( Laughter ) का अर्थ है कण्ठ और औष्ठपुटों को हिला-हिलाकर 'अहह' ध्वनि करते हुए अट्टहास करना । गान्धर्व-शास्त्र ( संगीत विद्या ) की परम्परा ( समय = प्रसिद्धि, आचार, Convention ) के अनुमार महेश्वर से सम्बद्ध गुण और धर्म आदि निमित्तों का चिन्तन करना ही गीत ( Song ) है । नाटयशास्त्र Science of Dramaturgy ) के अनुसार हस्त-पादादि का ऊपर फेंकना आदि अपने अंगों, प्रत्यंगों और उपांगों के साथ करें; जिसमें भाव ( आन्त रक) का अभाव ( हाव या अभिव्यक्ति ) भी रहे, यही नृत्य है। [ नाट्यशास्त्र के नियमों से नृत्य को सीमित करना अनिवार्य है। हस्तोत्क्षेपण, पादोत्क्षेपण आदि की भी विभिन्न मुद्राएं हैं जिनमें हृदय की भावनाएं बाह्य मुद्राओं द्वारा अभिव्यक्त होती हैं। इसका विस्तृत विवरण भरत ने नाट्यशास्त्र में किया है। नत्य के आचार्य स्वयं महेश्वर हैं जिनका नाम नटराज भी है अतः इनकी प्रसन्नता के लिए नृत्य की अनिवार्यता स्वतः सिद्ध है। ] हुडुक्कार उस नादविशेष को कहते हैं जो वृषभ ( साँड़ ) की आवाज की तरह का है तथा जिह्वा और तालु (चवर्ग का उच्चारणस्थान ) के संयोग से उत्पन्न होनेवाला जो पुण्यप्रद शब्द है । 'हुडुक्' शब्द वास्तव में 'वषट्' की तरह ही [ एक अव्यक्त ] ध्वनि का अनुकरण करनेवाला शब्द है। __ जहाँ पर लौकिक पुरुष ( सामान्य जन ) विद्यमान रहें, वहां पर इन सबों का प्रयोग गुप्त रूप से करना चाहिए [ क्योंकि प्रत्यक्षा: लोगों के सामने करने पर लोग 'मूर्ख' कहकर उपासक को अपने व्रत से भ्रष्ट कर सकते हैं । इसलिए व्रतचर्या को गोपनीय रखें या एकान्त में ही ये सब किया करें। एकान्तता ही रखने के लिए क्राथनादि द्वारचर्याओं की आवश्यकता पड़ती है जिन्हें हम इसके बाद देखेंगे। ] अवशिष्ट [ दोनों व्रतचर्याएँजप और नमस्कार ] तो प्रसिद्ध ही है ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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