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नकुलीश - पाशुपत दर्शनम्
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द्वाराणि तु काथन-स्पन्दन- मन्दन-शृङ्गारणावितत्क रणावितद्भाषणानि । तत्रासुप्तस्यैव सुप्तलिङ्गप्रदर्शनं क्राथनम् । वाय्वभिभूतस्येव शरीरावयवानां कम्पनम् स्पन्दनम् । उपहतपादेन्द्रियस्येव गमनम् मन्दनम् । रूपयौवनसम्पन्नां कामिनीमवलोक्यात्मानम् कामुकमिव यैविलासः प्रदर्शयति तत् शृङ्गारणम् ।
द्वारचर्याएं ( बाह्य प्रदर्शन के योग्य मुद्राएं ) ये हैं - क्राथन ( खर्राटे भरना, Snoring ) स्पन्दन ( देह कंपकपाना Trembling ), मन्दन ( लड़खड़ाकर चलना Limping ), शृंगारण ( विलास का प्रदर्शन ), अवितत्करण ( उलटा-सीधा काम करना ) और अविद्भाषण ( अनाप-शनाप बकना Nonsense talks ) ।
बिना नींद आये ही ( जगे हुए ही ) सोये हुए व्यक्ति के समान चेष्टाएँ ( आँखें बन्द करना, खर्राटे भरना आदि ) प्रदर्शित करना काथन है । वायुरोग से अभिभूत व्यक्ति की भाँति अपने शरीर के अंगों को कँपाना स्पन्दन कहलाता है । टूटे हुए पैर वाले व्यक्ति की तरह लड़खड़ाकर चलना मन्दन है । रूप ( सौन्दर्य ) और यौवन से सम्पन्न किसी कामिनी को देखकर अपने को कामुक के समान प्रदर्शित करते हुए ( साधक जब कामुकों के योग्य जिन-जिन विलासों का प्रदर्शन करता है वे शृंगारण हैं । (दे० पा० सू० ३।१२-१७ ) [ वास्तव में उपासक इन दोषों से मुक्त है, किन्तु लोगों को अपने पास से अलग करने के लिए वह उत चेष्टाएँ दिखलाता है । अभी भी बहुत से ऐसे साधक भारत में विद्यमान हैं । ]
कार्याकार्यविवेकविकलस्येव व्याहतापार्थकादिशब्दोच्चारणमवितद्भाषणमिति ।
गुणभूतस्तु विधिश्चर्यानुग्राहकोऽनुस्नानादिः भैक्ष्योच्छिष्टादिनिर्मितायोग्यताप्रत्ययनिवृत्यर्थः । तदप्युक्तं सूत्रकारेण - अनुस्नाननिर्माल्यलिङ्गधारीति ।
लोकनिन्दितकर्मकरणमवितत्करणम् ।
कर्तव्य और अकर्तव्य की विवेचना करने में असमर्थ व्यक्ति की तरह लोगों के द्वारा निन्दनीय कर्म करना अवितत्करण है । परस्पर विरोधी निरर्थक आदि शब्दों को बकते फिरना अवितद्भाषण कहलाता है । [ इस प्रकार प्रधान विधि का वर्णन, समाप्त हुआ । ]
चर्या के अनुग्राहक ( सहायक ) अनुस्तान आदि को गौण विधि कहते हैं । इसका प्रयोग इसलिए होता है कि भिक्षान्न भोजन, उच्छिष्ट भोजन आदि के द्वारा शरीर में जो अयोग्यता ( अपवित्रता ) आ जाती है उसका निवारण इस विधि के सूत्रकार ने यह भी कहा है- अनुस्नान, निर्मात्य और लिङ्ग का [ पवित्र होता है ] ।
द्वारा ही होता है । धारण करनेवाला
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