SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६८ सर्वदर्शनसंग्रहे विशेष-प्रधान विधि ( या चर्या ) का पालन अपवित्र अवस्था में नहीं किया जाता। भोजन के अनन्तर बिना स्नान किये हुए उच्छिष्टादि अन्नजनित दोष रहते हैं । अतः अपवित्र दशा में योग्यता के अभाव में चर्या का अधिकार नहीं रहता। मलमूत्र-त्याग के बाद भी वही बात है । यह अपवित्रता अनुस्नान आदि गौण विधियों से दूर की जा सकती है। अनुस्नान स्नान का प्रतिनिधि है जिसमें जलस्पर्श, आचमन, भस्मस्नान आदि हैं । व्रतों में पढ़ा गया भस्मस्नान तीनों कालों में विहित है, वह नित्य है जब कि यहाँ का भस्मस्नान नैमित्तिक ( Occasional ) है । अनुस्नान के अनन्तर पवित्र होकर निर्माल्य और भस्म धारण करें। जब तक ये शरीर में हैं तब तक उपासक अपवित्र नहीं हो सकता । तन्त्रसार में कहा है-निर्माल्यं शिरसा धार्य सर्वाङ्गे चानुलेपनम् । ( ७. समासादि पदार्थ और अन्य शास्त्रों से तुलना ) तत्र समासो नाम मिमात्राभिधानम् । तच्च प्रथमसूत्र एव कृतम् । पञ्चानां पदार्थानां प्रमाणतः पञ्चाभिधानं विस्तरः । स खलु राशीकरभाष्ये द्रष्टव्यः । एतेषां यथासम्भवं लक्षणतोऽसङ्करेणाभिधानं विभागः । स तु विहित एव । [ ऊपर सर्वज्ञत्व का लक्षण करते हुए समास, विस्तर, विभाग और विशेष जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया था। अब उन शब्दों की व्याख्या की जाती है। केवल मिर्यों ( पदार्थों ) का नाम भर ले लेना समास कहलाता है । ऐसा प्रथम सूत्र में ही किया गया है [ कि पाँचों पदार्थों का चतुराई से नाम ले लिया गया है ] । पाँचों पदार्थों का प्रामाणिक रूप में विस्तारपूर्वक ( पञ्च = विस्तार ) नाम लेना विस्तर है। इसे राशीकरभाष्य ( सम्भवतः कौण्डिन्य-भाव्य ) में देखना चाहिए । इन सबों का यथासम्भव लक्षण दिखलाते हुए, एक दूसरे पदार्थ से बिना मिलाये हुए ( स्पष्ट रूप से ), वर्णन करना विभाग कहलाता है । इसका विधान तो इस शास्त्र में हुआ ही है। शास्त्रान्तरेभ्योऽमीषां गुणातिशयेन कथनं विशेषः। तथा हि-अन्यत्र दुःखनिवृत्तिरेव दुःखान्तः । इह तु पारमैश्वर्यप्राप्तिश्च । अन्यत्राभूत्वा भावि कार्यम् । इह तु नित्य पश्वादि । अन्यत्र सापेक्षं कारणम् । इह तु निरपेक्षो भगवानेव । अन्यत्र कैवल्यादिफलको योगः। इह तु पारमैश्वर्यदुःखान्तफलकः । अन्यत्र पुनरावृत्तिरूपस्वर्गादिफलको विधिः । इह पुनरपुनरावृत्तिरूपसामीप्यादिफलकः। दूसरे शास्त्रों (न्याय आदि ) से इस शास्त्र में कथित इन पदार्थों के गुणों के पार्थक्य का वर्णन करना विशेष कहलाता है । [ पाशुपत-शास्त्र में जिन पाँच पदार्थों का वर्णन हुआ है उनके लक्षण दूसरे शास्त्रों में पृथक् रूप में दिये गये हैं। इस शास्त्र के लक्षणों से उन लक्षणों की तुलना करके अपने लक्षणों को श्रेष्ठ सिद्ध करना ही विशेष कहलाता है ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy