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आईतपर्शनम् होंगी, एक उपाध्याय में, दूसरी शिष्य में। यह तो मानना होगा कि अपने अनुभूत विषय को अध्यापक इसलिए याद करता है कि वह उसी सन्तान में है, उसी तरह उसी सन्तान में होने के कारण उपदेश के पूर्वकाल में जो उपाध्याय की बुद्धि थी, उसका स्मरण शिष्य कर ही लेगा। इस तरह उपदेश के पहले की अव्यापक बुद्धि दो सन्ताने उत्पन्न करती हैं-उपदेश के बाद की उपाध्याय-बुद्धि तथा उपदेश के बाद की शिष्य-बुद्धि । अतः अध्यापक का अनुभव शिष्य स्मरण करेगा । दोनों में कार्य-कारण का सम्बन्ध है ही। फिर अतिप्रसंग रुका कहाँ ? एक के किये अनुभव या कार्य का स्मरण अथवा फल तो दूसरे ने ले ही लिया । यही तो अतिप्रसंग है। कार्य-कारण-भाव मानने पर भी अतिप्रसंग का कुछ नहीं बिगड़ेगा । क्षणिकवाद सिद्धान्त ही ऐसा है, जिनमें अतिप्रसंग होता ही है। तथा च कृतप्रणाशाकृताभ्यागमप्रसङ्गः । तदुक्तं सिद्धसेनवाक्यकारेण४. कृतप्रणाशाकृतकर्मभोगभवप्रमोक्षस्मृतिभङ्गदोषान् । उपेक्ष्य साक्षात्क्षणभङ्गमिच्छन्नहो महासाहसिकः परोऽसौ ॥
(वो० स्तु० १८) इति । इसी प्रकार किये गये कर्म का नाश तथा नहीं किये गये कर्म की फल प्राप्ति का प्रसंग हो जायगा। [ उपर्युक्त उदाहरण में उपाध्याय के किये गये कर्म का फल उपाध्याय को नहीं मिलता, यह कर्म-प्रणाश हुआ । दूसरी ओर, शिष्य को, जिसने कर्म भी नहीं किया, केवल उपाध्याय से क्षणिक सम्पर्क मात्र किया, फल भोगना पड़ता है। इसे सिद्धसेन के [ सिद्धान्तों के ] वार्तिककार ने यों लिखा है-(१) किये गये कर्म का नाश, (२) नहीं किये हुए कर्म का फल भोगना, ( ३ ) संसार का विनाश, (४) मोक्ष का विनाश तथा (५) स्मरणशक्ति का भंग हो जाना-इन दोषों की साक्षात् उपेक्षा करके जो क्षणिकवाद को मानने की इच्छा करता है, वह विपक्षी वास्तव में बड़ा साहसी है !' [ हेमचन्द्र लिखित वीतरागस्तुति नाम के ग्रन्थ में यह श्लोक है । इस ग्रन्थ की टीका का ही नाम स्याद्वादमंजरी है।]
विशेष--बौद्धों के क्षणिकवाद का खण्डन कुमारिल ने श्लोकवार्तिक (पृ० २१७-२३ ) में, शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र २।२।१८ के भाष्य में, जयन्तभट्ट ने न्यायमंजरी ( भाग २, पृ० १६-३९) में तथा मल्लिषेण ने स्याद्वादमंजरी (पृ० १२२-२६ ) में किया है। ये सभी उपर्युक्त पांचों तर्कों का आश्रय लेते हैं। (१) कृतप्रणाश-वस्तुओं के क्षणिक होने के कारण कोई भी वस्तु बिना फल का उत्पादन किये ही भूतकाल के गर्भ में विलीन हो जाती है। जो काम करनेवाला व्यक्ति है, उसे फल नहीं मिलता, क्योंकि फल मिलने के समय तक तो कार्य रहा ही नहीं और न वह व्यक्ति ही रहा, जिससे काम किया गया। क्षण-क्षण में चीजें बदलती जा रही हैं। इसे ही 'कुतप्रणाश' या 'किये गये