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________________ ४२६ सर्वदर्शनसंग्रहेचार्वाक का पक्ष है कि परतन्त्रता बन्धन है और स्वतन्त्रता मोक्ष । इस मत में भी यदि 'स्वतन्त्रता' से दुःख की निवृत्ति समझते हैं तो हमारा उनसे कोई विवाद नहीं [क्योंकि हम भी दुःख का उच्छेद ही मुक्ति मानते हैं । ] किन्तु यदि वे 'स्वतन्त्रता' का अर्थ ऐश्वर्य लेते हैं तो कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति इसे स्वीकार नहीं करेगा, क्योंकि एश्वर्य को कोई पार कर सकता है या उसके समान बन सकता है। मोक्ष ऐसा होना चाहिये कि उससे कोई बढ़े नहीं, और न ही कोई उसके समान बने । दूसरे शब्दों में परम पुरुषार्थ को निरतिशय तथा निरुपम होना चाहिए। परन्तु एश्वर्य का अतिशय ( पार ) किया जा सकता है, क्योंकि वह पार्थिव है । राजा के ऐश्वर्य से भी दूसरे राजा का ऐश्वर्य बढ़ सकता है। ऐश्वर्य की समकक्षता भी हो सकती है । अतः ऐसा एश्वर्यात्मक मोक्ष नहीं चाहिए । ] प्रकृतिपुरुषान्यत्वख्याती प्रकृत्युपरमे पुरुषस्य स्वरूपेणावस्थानं मुक्तिरिति सांख्याख्यातेऽपि पक्षे दुःखोच्छेदोऽस्त्येव । विवेकज्ञानं पुरुषाश्रयं प्रकृत्याश्रयं वेत्येतावदवशिष्यते । तत्र पुरुषाश्रयमिति न श्लिष्यते । पुरुषस्य कोटस्म्यावस्थाननिरोधापातात् । नापि प्रकृत्याश्रयः । अचेतनत्वात्तस्याः। किं च प्रकृतिः प्रवृत्तिस्वभावा निवृत्तिस्वभावा वा ? आधेऽनिर्मोक्षः। स्वभावस्यानपायात् । द्वितीये संप्रति संसारोऽस्तमियात् ।। 'प्रकृति ( जड़वर्ग का अचेतन त्रिगुणात्मक मूल कारण ) और पुरुष ( जीव ) के भेद का ज्ञान ( ख्याति ) हो जाने पर, प्रकृति के हट जाने पर, पुरुष का अपने रूप में अवस्थित होना ही मुक्ति है'–सांख्य-दर्शन के इस पक्ष में दुःख का उच्छेद तो होता ही है । अव विवाद करने के लिए बचा है तो इतना ही कि यह विवेकज्ञान पुरुष पर आश्रित है या प्रकृति पर ? उनमें विवेकज्ञान का पुरुष पर आश्रित होना ठीक नहीं है, क्योंकि सांख्य पुरुष को कूटस्थ ( मूल रूप में सदा एक ) रूप में अवस्थित माना जाता है जिसका निरोध हो जायगा । [ पुरुष को अविकृत मानते हैं। यदि उसे विवेकज्ञान होता है तो इसका यही तात्पर्य है कि पहले यह अज्ञान में लिप्त था। फिर अविकृत कैसे रहा ? ] विवेकज्ञान को प्रकृति पर आश्रित भी नहीं मान सकते, क्योंकि वह अचेतन है । ____ अच्छा अब यह बतलायें कि प्रकृति का स्वभाव प्रवृत्त होना है या निवृत्त होना ? यदि इसके स्वभाव में प्रवृत्ति है तब तो इसका मोक्ष हो नहीं सकता, क्योंकि स्वभाव छूटता नहीं [ और जब तक प्रवृत्ति रहेगी तब तक मोक्ष नहीं होगा। ] यदि इसके स्वभाव में निवृत्ति है तो इसी समय संसार का अस्त हो जायगा । ( ११ क. मीमांसा-मत से मुक्ति-विचार ) नित्यनिरतिशयसुखाभिव्यक्तिर्मुक्तिरिति भट्टसर्वज्ञाद्यभिमतेऽपि दुःखनिवृत्तिरभिमतव । परंतु नित्यसुखं न प्रमाणपद्धतिमध्यास्ते। श्रुतिस्तत्र
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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