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अक्षपाद-दर्शनम्
चेत् — इष्टमेव । अथ देहमेवावरणम् । तथा च तन्निवृत्तौ पञ्जरान्मुक्तस्य शुकस्येवात्मनः सततोर्ध्वगमनं मुक्तिरिति चेत् - तदा वक्तव्यम् ।
'आवरणों ( व्याघात, बाधा, रुकावट ) से मुक्त हो जाना ही मुक्ति है' - जैनसिद्धान्त से सम्मत यह मार्ग भी स्वभावतः प्रतिबन्ध - रहित नहीं है । महाशय, आपसे ( जैनों से ) हम पूछते हैं, बतलावें तो- आवरण क्या है ? यदि वे कहें कि हम धर्म, धर्म और भ्रान्ति को आवरण मानते हैं तब तो हमारी बात का ही समर्थन होगा । यदि देह को आवरण मानते हुए उसका विनाश हो जाने पर पिंजड़े से छूटे हुए सुग्गे की तरह आत्मा का लगातार ऊपर जाते रहना ही मुक्ति समझते हैं तो अब हमारी बात का उत्तर दीजिये ।
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किमयमात्मा मूर्तोऽमूर्तो वा ? प्रथमे निरवयवः सावयवो वा ? निरवयवत्वे निरवयवो मूर्तः परमाणुरिति परमाणुलक्षणापत्त्या परमाणुधर्मवदात्मधर्माणामतीन्द्रियत्वं प्रसजेत् । सावयवत्वे यत्सावयवं तदनित्यमिति प्रतिबन्धबलेनानित्यत्वापत्तौ कृतप्रणाशाकृताभ्यागमौ निष्प्रतिबन्धौ प्रसरे
ताम् ।
अमूर्तत्वे गमनमनुपपन्नमेव । चलनात्मिकायाः क्रियायामूर्तत्वप्रतिबन्धात् ।
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क्या यह आत्मा मूर्त है या अमूर्त ? यदि मूर्त है तो अवयवों से रहित है । या सावयव है ? यदि आत्मा पर परमाणु के लक्षण का आपादन हो जायगा तथा जिस प्रकार परमाणु के धर्म अतीन्द्रिय हैं आत्मा के धर्म भी अतीन्द्रिय हो जायेंगे । यदि आत्मा अवयवयुक्त हो तो 'जो पदार्थ सावयव होता है वह अनित्य है' इस प्रकार व्याप्ति ( प्रतिबन्ध ) की स्थापना होने से यह ( आत्मा ) अनित्य हो जायगी और बिना किसी रुकावट के 'कृत-प्रणाश' तथा 'अकृताभ्यागम' ये दोनों दोष चले आयेंगे । [ यदि आत्मा अनित्य हो जाती है तो इसकी निवृत्ति भी होगी तथा जो काम इसने किया था । उसका फल निवृत्ति होने के साथ-साथ हो नष्ट हो जायगा । इस प्रकार कृत-प्रणाश होगा। जो काम आत्मा ने नहीं किया था उसका फल इसे मिलने लगेगा । अच्छा या बुरा फल जो किसी आत्मा को भोगना पड़ेगा वह उसके पूर्वजन्म में किये गये कर्मों का तो फल नहीं हे । यही 'अकृताभ्यागम' दोष है । ये दोष संसार के कर्म सिद्धान्त के विरुद्ध हैं | ]
अब यदि वे आत्मा को अमूर्त मानें तो उसका गमन ( ऊर्ध्वगमन) ही कैसे होगा ? चलने का काम ऐसा है जो किसी मूर्त पदार्थ से ही हो सकता है । [ प्रतिबन्ध = व्याप्ति | मूर्त के साथ ही चलन-क्रिया की व्याप्ति सम्भव है । ]
( ११. चार्वाक और सांख्य-मत में मोक्ष
'पारतन्त्र्यं बन्धः, स्वातन्त्र्यं मोक्षः' इति चार्वाकपक्षेऽपि स्वातन्त्र्यं दुःखनिवृत्तिश्चेत्- अविवादः । ऐश्वर्यं चेत् — सातिशयतया सदृक्षतया च प्रेक्षावतां नाभिमतम् ।