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________________ ३६० सर्वदर्शनसंग्रहेउत्पति, पाकज की उत्पत्ति, विभागज विभाग इत्यादि । इनका विचार कर लेने पर अभाव का निरूपण होगा और वहीं इस दर्शन का अन्त हो जायगा। ( ९. द्वित्व आदि की उत्पत्ति का विवेचन ) ३. द्वित्वे च पाकजोत्पत्तो विभागे च विभागजे । यस्य न स्खलिता बुद्धिस्तं वै वैशेषिकं विदुः॥ इत्याभाणकस्य सद्भावाद् द्वित्वाद्युत्पत्तिप्रकारः प्रदर्श्यते । "पकका वैशेषिक उसी को कहते हैं जिसकी बुद्धि द्वित्व ( Duality ) की संख्या के विषय में, पाकज उत्सत्ति ( अग्नि-संयोग के कारण होनेवाले परिवर्तन ) के विषय में तथा विभाग ( D.sjunction ) से उत्पन्न होनेवाले विभाग के विषय में स्खलित ( च्युत ) नहीं होगी । ( तात्पर्य यह है कि वैशेषिक दर्शन में इन तीनों की विवेचना विशेष रूप से की जाति है। )' ऐसी लोकोक्ति संसार में प्रचलित है, इसलिए अब यहाँ द्वित्व आदि की उत्पति की विधि दिखलाई जायगी। विशेष—गुणों में एक गुण संख्या भी है, जिससे हम एक-दो-तीन आदि का व्यवहार करते हैं । इनमें एकत्व ही मुख्य नैसर्गिक संख्या है जो आधार वस्तु की प्रकृति के अनुसार नित्य या अनित्य होता है-~-यदि नित्य पदार्थ में (जैसे आकाश में ) एकत्व हो तो तह नित्य होता है, यदि अनित्य वस्तु में रहे तो यही एकत्व अनित्य हो जाता है। एकत्व के अतिरिक्त सारी संख्याएं कृत्रिम तथा अनित्य हैं। हम अपनी बुद्धि के कारण द्वित्व, त्रित्व, बहुत्व आदि की कल्पना करते हैं, क्योंकि व्यावहारिक दशा में उसकी आवश्यकता पड़ती है । इस प्रकार एकत्व जहाँ वस्तु में स्वभावतः स्थित है, वहीं द्वित्व बुद्धि ( =अपेक्षाबुद्धि ) पर निर्भर करता है, बुद्धि के द्वारा ही वस्तुओं पर द्वित्व-त्रित्वादि का आरोपण होता है । अपेक्षाबुद्धि उसे कहते हैं जिससे यह ज्ञान होता है कि यह एक है, यह दूसरा है । अनेक पदार्थों में एक-एक का बोध इसी से होता है ( अनेकैकत्वविषयिणी बुद्धिः )। ___अपेक्षाबुद्धि और द्वित्व के सम्बन्ध के विषय में मीमांसकों और वैशेषिकों में मतभेद है। मीमांसक कहते हैं कि जिस समय दो घट एक साथ होते हैं उसी समय द्वित्व संख्या उगल हो जाती है। बाद में इन्द्रियों के साथ घटों का संनिकर्ष ( Contact ) होने पर 'यह एक घट है, वह दूसरा' इस प्रकार की अपेक्षाबुद्धि के द्वारा द्वित्व का ज्ञान होता है। द्वित्व पहले से वर्तमान है जिसकी अभिव्यक्ति-( Manifestation ) अपेक्षाबुद्धि के दारा होती है। अपेक्षाबुद्धि द्वित्व को उत्पन्न नहीं करती। वैशेषिकों का विचार ठीक उन्टा है । वे कहते हैं कि द्वित्व संख्या अज्ञात है (जैसा कि मीमांसक अपेक्षाबुद्धि के पहले उमे मानते हैं ), तब उसे स्वीकार करना ही निरर्थक है। इसलिए उसकी सत्ता ( ज्ञात या अनात भी ) तभी होती है जब अपेक्षाबुद्धि उसे उत्पन्न कराती है । इस दृष्टि से अपेक्षाबुद्धि के द्वारा हित्व संग्या की उत्पत्ति होती है, अभिव्यक्ति नहीं।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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