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________________ औलूक्य-वर्शनम् प्रथम अध्याय में, जिसमें दो आह्निक ( एक दिन का पाठ = आह्निक ) हैं, उन सभी पदार्थों का वर्णन है जो समवेत अर्थात् समवाय-सम्बन्ध से युक्त हैं [ समवाय-सम्बन्ध का अर्थ नित्य-सम्बन्ध, जो कभी भिन्न न हो । द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और विशेष-इतने पदार्थों का समवाय-सम्बन्ध होता है । द्रव्य अपने अवयवों में समवेत रहता है, गुणों और कर्मों का समवाय-सम्बन्ध द्रव्य के साथ रहता है, क्योंकि गुण और कर्म से युक्त होना द्रव्य-सामान्य का लक्षण ही है । सामान्य तो जाति को ही कहते हैं, जिसका समवाय-संबंध उपर्युक्त तीनों से है। विशेष नित्य द्रव्यों में समवेत रहते हैं । अवयवहीन परमाणुओं को तथा आकाश आदि को भी यद्यपि समवेत नहीं कह सकते, किन्तु नित्य द्रव्यों के साथ उनका समवाय-सम्बन्ध होता है । इसी अर्थ में वे समवेत हैं । षष्ठ पदार्थ समवाय समवेत नहीं होता है, क्योंकि यदि उसे समवेत मानें तो किसी में समवेत होगा एवं उसका किसी के साथ समवाय होगा-फिर उसका भी दूसरा समवाय होगा । ऐसा करते-करते कहीं अन्त नहीं होगा, अनवस्था हो जायगी । इसलिए प्रथम पाँच पदार्थ ही समवेत होते हैं ] । उसमें भी प्रथम आह्निक में उन पदार्थों का निरूपण हुआ है जिनकी जाति ( सामान्य, Class ) होती है (अर्थात् द्रव्य, गुण और कर्म का)। द्वितीय आह्निक में सामान्य (.जाति ) और विशेष का निरूपण किया है। दो आह्निकोंवाले द्वितीय अध्याय में द्रव्य का निरूपण हुआ है जिसमें प्रथम आह्निक में भूतों ( क्षिति, जल, अग्नि, वायु, आकाश ) के लक्षण हैं और दूसरे में दिशा तथा काल का निरूपण है। [स्मरणीय है कि द्रव्य नव हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, दिशा, काल, आत्मा और मन । इनमें प्रथम सात का वर्णन द्वितीय अध्याय में ही हो गया है।] तृतीय अध्याय में जिसमें दो आह्निक हैं, आत्मा और अन्तःकरण ( आन्तरिक इन्द्रिय = मन ) के लक्षण हैं । इनमें भी प्रथम आह्निक में आत्मा का लक्षण है, द्वितीय में अन्तःकरण का । [ इस प्रकार द्रव्यों को विवेचना समाप्त होती है। ] दो आह्निकोंवाले चतुर्थ अध्याय में शरीर और उसके उपयोगी तत्त्वों ( Adjuncts, जैसे-परमाणुकारणता आदि ) का वर्णन है । प्रथम आह्निक में शरीर के उपयोगियों का ही वर्णन है और दूसरे आह्निक में शरीर का विवेचन है। ___ आह्निकद्वयवति पञ्चमे कर्मप्रतिपादनम् । तत्रापि प्रथमे शरीरसंबन्धिकर्मचिन्तनम्। द्वितीये मानसकर्मचिन्तनम्। आह्निकद्वयशालिनि षष्ठे श्रौतधर्मनिरूपणम् । तत्रापि प्रथमे दानप्रतिग्रहधर्मविवेकः । द्वितीये चातुराश्रयोचितधर्मनिरूपणम् । __ दो आह्निकोंवाले पंचम अध्याय में कर्म का प्रतिपादन हुआ है। इसमें प्रथम आह्निक में शरीर से निष्पन्न होनेवाले कर्मों का विचार हुआ है, दूसरे आह्निक में मानसिक कर्मों
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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