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सर्वदर्शनसंग्रहेन्यायचर्चेयमोशस्य मननव्यपदेशभाक् ।
उपासनैव क्रियते श्रवणानन्तरागता । अर्थात् 'मनन' ( Thought ) शब्द से अभिहित यह न्यायचर्चा श्रवण के अनन्तर आती है तथा इससे ईश्वर की उपासना ही होती है । यहाँ न्यायचर्चा का अर्थ है अनुमान, क्योंकि. वही न्याय में विशेष रूप से चर्चित होता है। ___ कणाद ने अपने सूत्रों में केवल छह पदार्थों का निरूपण किया है । वे हैं-द्रव्य ( Substance ), गुण ( Quality ), कर्म ( Action ), सामान्य ( Generality ), विशेष ( Particularity ) और समवाय ( Inherence ) 1 प्रशस्तपाद में अभाव ( Non-existence ) को भी सप्तम पदार्थ ( Category ) के रूप में स्वीकार किया गया है। तब से पदार्थ सात माने गये हैं। भावात्मक ( Positive ) पदार्थ छह ही हैं। इसकी संख्या पर आगे मूल में ही विचार करेंगे। कणाद के दस अध्यायोंवाले सूत्र-ग्रन्थ को 'दशलक्षणी' ( =दशाध्यायी ) कहा गया है । कणाद के पास कुछ ऐसे शिष्य आये जो विधिवत् वेद-वेदाङ्ग का अध्ययन कर चुके थे, असूया ( दोषान्वेषण की प्रवृत्ति ) से शून्य थे
और इस प्रकार 'श्रवण' कर चुके थे । मनन के लिए आये हुए इन शिष्यों पर परम कारुणिक भगवान् कणाद प्रसन्न हो गये और उन्होंने वैशेषिकदर्शन की रचना की। उसका प्रथम सूत्र यही है-अथातो धर्म व्याख्यास्यामः। इस सूत्र में 'अथ' शब्द के द्वारा मंगल या आनन्तर्य ( Subsequence ) का बोध होता है अर्थात् शिष्यों की जिज्ञासा के पश्चात् । अतः = इसलिए । चूँकि श्रवणादि में निपुण, असूयारहित शिष्य लोग आये हैं इसलिए ज्ञान की पराकाष्ठा के रूप में जो धर्म है उसकी व्याख्या अब करेंगे। धर्म का लक्षण दूसरे ही सूत्र में दिया गया है--यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः ( १।१।२ ) । जिससे अभ्युदय ( स्वर्ग, तत्त्वज्ञान, लौकिक उन्नति ) तथा निःश्रेयस ( मोक्ष ) की प्राप्ति हो वही धर्म है । यहाँ 'धर्म' शब्द अपने शास्त्रीय विषय के अर्थ में लिया गया है। अब कणाद-सूत्रों की विषय-वस्तु पर विचार आरम्भ होता है।
(२. वैशेषिक-सूत्र को विषय-वस्तु ) तत्राह्निकद्वयात्मके प्रथमेऽध्याये समवेताशेषपदार्थकथनमकारि । तत्रापि प्रथमाह्निके जातिमन्निरूपणम् । द्वितीयाह्निके जातिविशेषयोनिरूपणम् ।
आह्निकद्वययुक्ते द्वितीयेऽध्याये द्रव्यनिरूपणम् । तत्रापि प्रथमेऽध्याये भूतविशेषलक्षणम् । द्वितीये दिक्कालप्रतिपादनम्।
आह्निकद्वययुक्त तृतीय आत्मान्तःकरणलक्षणम् । तत्राप्यात्मलक्षणं प्रथमे । द्वितीयेऽन्तःकरणलक्षणम् । आह्निकद्वययुक्ते चतुर्थे शरीरतदुपयोगिविवेचनम् । तत्रापि प्रथमे तदुपयोगिविवेचनम् । द्वितीये शरीरविवेचनम् ।