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________________ औलूक्य-दर्शनम् ३३९ सकता है । जैसा कि कहा गया – 'आगम से, अनुमान से तथा ध्यानाभ्यास के बल से इस प्रकार तीन तरह से अपनी बुद्धि को परमेश्वर के विषय में लगाकर साधक उत्तम योग प्राप्त करता है ।' [ आगम और श्रवण समानार्थक ( अनर्थान्तर ) हैं । गुरु के पास से परमेश्वर के स्वरूप तथा उसके गुणों के विषय में श्रवण करना परमेश्वर - ज्ञान का प्रथम सोपान है । इस श्रवण में आप्त ( प्रामाणिक ) वाक्य या आगम की आवश्यकता पड़ती है इसलिए इसे आगम भी कहते हैं। जो बात सुन चुके हैं उनमें दृढ़ता लाने या अच्छी तरह उन पर विश्वास करने के लिए अनुमान के नियमों के अनुसार युक्तिपूर्वक चिन्तन करना भी आवश्यक ही है । यही चिन्तन मनन कहलाता है । चूंकि इसमें अनुमान का सहारा लेना पड़ता है, इसलिए इसे अनुमान भी कह देते हैं श्रवण और मनन के पश्चात् उस अर्थ । यही का बार-बार ध्यान करना चाहिए। ऐसा करने से वह बात हृदय में बैठ जाती भावना है। जिस मार्ग से सामान्यपदार्थ का श्रवणादि होता है उसी मार्ग से ईश्वर के विषय का भी । जब बुद्धि ईश्वरविषयिणी हो जाती है उसी समय उत्तम योग अर्थात् ईश्वर का साक्षात्कार प्राप्त होता है । ] । [ अब इन तीनों उपायों में ] मनन अनुमान पर निर्भर करता है और स्वयम् अनुमान व्याप्ति ( Universal relation ) के ज्ञान पर । व्याप्ति का ज्ञान भी पदार्थों की पारस्परिक विवेचना ( Discussion ) की अपेक्षा रखता है । यही कारण है कि छह पदार्थों की व्यवस्था भगवान् कणाद ने दस लक्षणों ( अध्यायों ) से युक्त [ अपने वैशेषिकदर्शन में ] की है, जिस ( दर्शन ) का आरम्भ-सूत्र है - अब इसलिए ( हम ) धर्म की व्याया करें ( वैशेषिकसूत्र १।१।१ ) । विशेष - श्वेताश्वर उपनिषद् में वाक्य आया है - 'तमेवं विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्या विद्यतेऽयनाय' ( ३८ ) अर्थात् उस परमेश्वर को इस रूप में जानकर लोग मृत्यु ( दुःख ) के बन्धन से छूट जाते हैं, कोई दूसरा मार्ग इससे निकलने का नहीं है । इस श्रुति को ही आधार मानकर वैशेषिक लोग परमेश्वर - साक्षात्कार को ही एकमात्र उपाय बतलाते हैं जिससे मृत्यु से निकल जा सकते हैं । इस साक्षात्कार ( Knowledge ) के लिए तीन परस्पर क्रमबद्ध उपाय हैं-श्रवण, मनन और भावना । प्रस्तुत दर्शन का सम्बन्ध न तो श्रवण से है न भावना से । मनन विशेषतया उसकी पद्धति का निरूपण करना ही न्यायवैशेषिक का लक्षण है । मनन के लिए अनुमान और अनुमान के लिए व्याप्तिज्ञान आवश्यक है । व्याप्तिज्ञान के लिए पदार्थों का विवेचन महर्षि कणाद करते हैं । न्याय में मनन की पद्धति -- अनुमान का विशद विचार होता है जब कि वैशेषिक दर्शन में उस अनुमान की सफलता के लिए पदार्थों का विश्लेषण किया जाता है । दोनों इस दृष्टि से एक दूसरे की सहायता करते हैं । इन दर्शनों के द्वारा ईश्वर की उपासना ही होती है, क्योंकि इनकी सारी चर्चाएँ मनन के अन्तर्गत आती हैं । उदयनाचार्य अपनी न्यायकुसुमांजलि में ( १1१३ ) कहते हैं—
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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