________________
बौद्ध दर्शनम्
६१
जैसा कि कहा भी गया है—' छह ( दिशाओं ) के साथ युगपत् ( समकालिक ) योग होने से परमाणु के छह तल (अंश, भाग ) सिद्ध होते हैं ( जैसे परमाणु का ऊपरी भाग, पश्चिमी भाग, दक्षिणी भाग आदि ) । और इन्हें एक-एक भाग करके लिया जाय तो अणु के आकार का कोई भी पिण्ड ( ठोस पदार्थ ) बन सकता है ।' ( इस प्रकार ग्राह्यता के अभाव में परमाणु असत् है, यह अवयवहीन नहीं ) ।
( २०. बुद्धि का स्वयं प्रकाशित होना )
तस्मात्स्वव्यतिरिक्तग्राह्यविरहात्तदात्मिका बुद्धि: स्वयमेव स्वात्मरूपप्रकाशिका प्रकाशवदिति सिद्धम् । तदुक्तम् -
१४. नान्योऽनुभाव्यो बुद्धयास्ति तस्या नानुभवोऽपरः । ग्राह्यग्राहक वैधुर्यात्स्वयं सैव प्रकाशते ॥ इति ॥ ग्राह्यग्राहकयोरभेदश्चानुमातव्यः । यद्वेद्यते येन वेदनेन, तत्ततो न भिद्यते यथा ज्ञानेनात्मा । वेद्यन्ते तैश्च नीलादयः ।
इसलिए, चूंकि बुद्धि को अपने अतिरिक्त कोई दूसरा ग्राह्य नहीं अतः उन विषयों के स्वरूप में रहनेवाली वह बुद्धि स्वयं ही, प्रकाश की तरह अपने रूप को प्रकाशित करने वाली है—यह सिद्ध हुआ । ऐसा कहा भी है- 'बुद्धि के द्वारा ग्राह्य ( अनुभव करने योग्य ) दूसरा कोई पदार्थ नहीं ( बुद्धि के द्वारा स्वयं बुद्धि ही ग्राह्य, दूसरी चीजें नहीं; बुद्धि किसी दूसरे पदार्थ को विषय नही बनाती ) । न तो उससे बढ़कर कोई अनुभव ही है । [ इसलिए बुद्धि के अलावे बाहर ] किसी भी ग्राह्य और ग्राहक के अभाव के कारण वह अपने-आप ही प्रकाशित होती है ।' ( प्रकाश तो अपने-आपको प्रकाशित करके संसार के अन्य पदार्थों को भी प्रकाशित करता है, किन्तु बुद्धि केवल अपने को प्रकाशित करती है, बाह्य अर्थों को नहीं । )
ग्राह्य और ग्राहक में भेद नहीं है - यह अनुमान कर लें। जिस वेदन ( ज्ञान ) से जिसको जाना जाता है, वह उससे भिन्न नहीं है ( ज्ञान और ज्ञान-वस्तु में अन्तर नहीं है ) जैसे ज्ञान से आत्मा [ पृथक नहीं है ] । ( ज्ञान से आत्मा को जानते हैं, इसलिए वहाँ आत्मा और ज्ञान एक ही हैं - अद्वैत वेदान्तियों का अनुसरण करके यह दृष्टान्त लिया गया है ) । उन ज्ञानों से ही नीलादि पदार्थों को जाना जाता है । क्षणिक पदार्थों का ज्ञान भी उसी से होता है )
भेदे हि सति अधुना अनेनार्थस्य सम्बन्धित्वं स्यात् । तादात्म्यस्य नियमहेतोरभावात् । तदुत्पत्तेरनियामकत्वात् । यश्चायं ग्राहयग्राहकसंवितीनां पृथगवभासः स एकस्मिश्चन्द्रमसि द्वित्वावभास इव भ्रमः । अत्राप्यनादिरविच्छिन्नप्रवाहा भेदवासनैव निमित्तम् । यथोक्तम्