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________________ आर्हत-वर्शनम् ४३. आद्यावाच्यविवक्षायां पश्वमो भङ्ग इष्यते । अन्त्यावाच्यविवक्षायां षष्ठभङ्गसमुद्भवः ॥ ४४. समुच्ययेन युक्तश्च सप्तमो भङ्ग उच्यते । इति । इस पूरे ( नय ) का प्रतिपादन अनन्तवीर्य ने किया है- 'किसी वस्तु का विधान ( Afrmation ) करने की इच्छा होने पर 'किसी प्रकार है' इस तरह की गति ( नय ) होती है । यदि उसका निषेध ( ( Negation ) कहना अभीष्ट हो तो 'किसी प्रकार नहीं है' ऐसा प्रयोग होता है । क्रमशः अब यदि दोनों कहने की इच्छा हो तो दोनों का समुदाय ( Combination ) लें [ स्थादस्ति च नास्ति च ] । जब दोनों को एक साथ कहना हो और [ विरोध होने के भय से ऐसा कहना ] संभव नहीं हो तो 'किसी प्रकार अवाच्य है' ऐसा कहें। प्रथम ( भंग ) के साथ अवाच्य कहने की इच्छा हो तो वह पंचम भंग होता है - [ स्यादस्ति चावक्तव्यम् ]। दूसरे भंग को अवाच्य से मिलाने पर षष्ठ भंग उत्पन्न होता है -- [ स्थान्नास्ति चावक्तव्यम् ] सबों के समुच्चय से बना हुआ भंग साँतवाँ है[किसी प्रकार है, नहीं है और अवक्तव्य है ] । निपातस्तिङन्तप्रतिरूपकोऽनेकान्तद्योतकः । स्याच्छन्दः खल्वयं १४९ यथोक्तम् - ४५. वाक्येrवनेकान्तद्योती गम्यं प्रति विशेषणम् । स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तिङन्तप्रतिरूपकः ॥ इति ॥ यदि पुनरेकान्तद्योतकः स्याच्छन्दोऽयं स्यात्तदा स्यादस्तीति वाक्ये स्यात्पदमनर्थकं स्यात् । अनेकान्तद्योतकत्वे तु स्यादस्ति कथंचिदस्तीति स्यात्पदात्कथंचिदित्ययमर्थो लभ्यत इति नानर्थक्यम् । तदाह ४६. स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात्कि वृत्तचिद्विधेः । हेयावेयविशेषकृत् ॥ इति ॥ सप्तभङ्गिनयापेक्षो ' स्यात् ' ( किसी प्रकार Somehow ) यह शब्द एक निपात ( अव्यय Particle है जो तिङन्त ( क्रिया ) के रूप में है । ( V अस् + विधिलिङ् ) तथा अनिश्चय का द्योतक है । जैसा कि कहा गया है- 'वाक्यों में अनेकान्त ( अनिश्चय ) को व्यक्त करनेवाला, गम्य ( विधेय Predicate, जैसे- अस्ति ) में प्रति विशेषण का काम करनेवाला, यह 'स्यात् ' निपात है जो सार्थक होने के कारण ( अर्थयोगित्वात् ) क्रिया के रूप में है ।' अभिप्राय यह है कि 'स्यात्' सार्थक है, क्रियापद की तरह देखने में लगता है, अनिश्चय का व्यंजक है तथा अपने विधेय 'अस्ति' आदि शब्दों का विशेषण बन जाता है । ] यदि 'स्यात्' शब्द एकान्त या निश्चय का बोध कराता तो 'स्यादस्ति' इत्यादि काव्य में 'स्यात्' शब्द निरर्थक होता [ सार्थक नहीं; क्योंकि 'स्यादस्ति' से निश्चयात्मक अर्थ ग्रहण करने पर 'अस्ति' पद का ही अर्थ हो सकता है, 'स्यात्' का नहीं, वह निरर्थक हो
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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