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________________ रसेश्वर-वर्शनम् ३३१ विकल्पानुपपत्तः । मुक्तिस्तावत्सर्वतीर्थकरसंमता । सा किं ज्ञेयपदे निविशते न वा । चरमे शशविषाणकल्पा स्यात् । प्रथमे न जीवनं वर्जनीयम् । अजीवतो ज्ञातृत्वानुपपत्तेः। तदुक्तं रसेश्वरसिद्धान्ते२३. रसाङ्कमेयमार्गोक्तो जीवमोक्षोऽन्यथा तु न । प्रमाणान्तरवादेषु युक्तिभेदावलम्बिषु ॥ २४. ज्ञातृज्ञेयमिदं विद्धि सर्वतन्त्रेषु संमतम् । नाजीवज्ञास्यति ज्ञेयं यदतोऽस्त्येव जीवनम् ॥ इति । कोई पूछ सकता है कि जीव होने का अभिप्राय है संसार के साथ रहना, उससे पृथक् रहने में मुक्ति है । तब परस्पर विरुद्ध [ वस्तुओं-जीव और मुक्ति-] का एक आयतन (आधार ) में रहना कैसे सिद्ध हो सकता है ? [ उत्तर होगा कि ] यह तर्क ठीक नहीं, क्योंकि इसमें होनेवाले दोनों विकल्प असिद्ध हो जायंगे। मुक्ति को तो सभी तीर्थकर ( दार्शनिक सम्प्रदाय के आचार्य ) मानते हैं। क्या वह मुक्ति ( १ ) ज्ञेय है या (२) नहीं ? यदि अज्ञेय मानते हैं तो 'खरहे को सींग' जैसे शब्दों की तरह असम्भव ( कल्पना का विषय ) हो जायगी, और यदि पहला विकल्प ( मुक्ति को ज्ञेय ) मानते हैं तो जीवन को त्याग नहीं सकते, क्योंकि बिना जीवन के कोई ज्ञाता बन जायगा-ऐसा सिद्ध नहीं कर सकते । रसेश्वर सिद्धान्त में कहा है-रस-शास्त्र ( रसेश्वर दर्शन ) में कथित नियम के अनुसार ही जीवन्मुक्ति सम्भव है, दूसरे किसी प्रकार से नहीं । विभिन्न युक्तियों का अवलम्बन करनेवाले [ विभिन्न दर्शनों में ] जहाँ [ जीवन्मुक्ति को सिद्ध करने के लिए ] दूसरे प्रमाण दिये गये हैं, वहां भी समझ लो कि सभी तन्त्रों से सम्मत ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध रहता ही है । ज्ञेय ( मुक्ति ) को चूंकि जीवन से रहित व्यक्ति नहीं जान सकता, अतः जीवन की सत्ता स्वीकार करनी पड़ेगी ही।' विशेष-ऊपर जीवन्मुक्ति को सिद्ध करने की बड़ी सुन्दर युक्ति है । पूर्वपक्षियों का कहना है कि जीवित होना ( संसार में रहना ) और मुक्त होना दोनों विरोधी धारणाएं है-एक स्थान पर दोनों की सत्ता हो ही नहीं सकती। इस पर उत्तरपक्षी दूसरी ही युक्ति का आश्रय लेते हैं कि मुक्ति की सता यदि है तो ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध भी रहेगा–मुक्ति ज्ञेय रहेगी, इसका ज्ञाता कोई जीवधारी व्यक्ति होना चाहिए, क्योंकि निर्जीव या मृत व्यक्ति इसे कैसे जान सकेंगे। इसलिए जीवित होना और मुक्त होनादोनों की सत्ता एक साथ स्वीकार करने में ही कुशल है, नहीं तो ज्ञानमीमांसाविषय ( Epistemological ) आपत्तियां उठेंगी। यदि मुक्ति को अज्ञेय मानते हैं तब तो यह बिल्कुल कल्पना की वस्तु हो जायगी, दुसरी सत्ता ही नहीं रहेगी। मुक्ति की सत्ता मानने पर जीवन्मुक्ति ही एकमात्र माननी पड़ेगी, विदेह मुक्ति के लिए कोई स्थान नहीं ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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