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सर्वदर्शनसंग्रहे( ११. शरीर को नित्यता-इसके प्रमाण ) न चेदमदृष्टचरमिति मन्तव्यम् । विष्णुस्वामिमतानुसारिभिन पञ्चास्यशरीरस्य नित्यत्वोपपादनात् । तदुक्तं साकारसिद्धौ२५. सच्चिग्नित्यनिजाचिन्त्यपूर्णानन्दकविग्रहम् ।
नृपञ्चास्यमहं वन्दे श्रीविष्णुस्वामिसंमतम् ॥ इति । ऐसा भी न समझें कि यह ( देह का नित्यत्व ) पहले से देखा नहीं गया है । विष्णुस्वामी के मत पर चलनेवाले लोग नरसिंह (नृ+पंचास्य = पंचानन ) के शरीर को नित्य सिद्ध करते हैं। जैसा कि साकारसिद्धि में कहा गया है-सत्, चित्, नित्य के स्वरूप में, निज ( अपना ), अचिंतनीय और पूर्ण आनन्द के रूप में जिनका एकमात्र शरीर ( विग्रह) है, वैसे नरसिंह की मैं वन्दना करता हूँ जो श्रीविष्णुस्वामी से सम्मत हैं ।
विशेष-सत् = जिसकी सत्ता है, सदा प्रकाशिता है। चिः = शुद्ध ज्ञानस्वरूप । नित्य = सदा संसार में विद्यमान, त्रिकाल में अबाधित । निज = आत्मस्वरूप । पूर्णानन्द = आत्मसाक्षात्कार के समय जैसा आनन्द जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय का द्वैध मिट जाय । विग्रह = शरीर । यह ध्येय है कि वे सारे विशेषण ब्रह्म के स्वरूप-लक्षण के लिए अद्वैत-मत में युक्त होते हैं।
नन्वेतत्साध्यवं रूपवदवभासमानं नुकण्ठीरवाङ्गं सदिति न संगच्छत इत्यादिनाक्षेपपुरःसरं सनकादिप्रत्यक्षं, 'सहस्रशीर्षा पुरुषः' ( श्वे० ३।१४ ) इत्यादि श्रुति,तमद्भुतं बालकमम्बुजेक्षणं चतुर्भुजं शङ्खगदाधुदायुधम् ।
(भाग० १०॥३॥९), इत्यादिपुराणलक्षणेन प्रमाणत्रयेण सिद्धं नृपञ्चाननाङ्गं कथमसत्स्यादिति सदादीनि विशेषणानि गर्भश्रीकान्तमिविष्णस्वामिचरणपरिणतान्तःकरणः प्रतिपादितानि । तस्मादस्मदिष्टदेहनित्यत्वमत्यन्तादृष्टं न भवतीति पुरुषार्थकामुकैः पुरुषैरेष्टव्यम् । अत एवोक्तम्
२६. आयतनं विद्यानां मूलं धर्मार्थकाममोक्षाणाम् ।
श्रेयः परं किमन्यच्छरीरमजरामरं विहायकम् ॥ इति। [ अब प्रश्न हो सकता है कि ] नरसिंह के दिखलाई पड़नेवाले शरीर को जिसमें अवयव ( अंग-प्रत्यंग ) तथा रूप ( आकृति या रंग ) भी हैं, सत्तायुक्त कहना संगत नहीं है। इस आक्षेप के बाद-(१) सनकादि ऋषियों के प्रत्यक्ष आधार पर, ( २ ) 'सहस्र सिरवाले पुरुष'-इस वेदिक प्रमाण के आधार पर तथा ( ३) 'उस विचित्र, कमल-नयन, चारभुजाओंवाले, तथा शंख-गदा आदि आयुधोंवाले बालक को' ( कृष्ण के वर्णन में, भागवत