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को दे दिया । किन्तु ये विजेता माधव माधवाचार्य से भिन्न हैं । माधवाचार्य और माधव मन्त्री दोनों के व्यक्तित्वों में बड़ा अन्तर भी है। दोनों के मातापिता तो भिन्न थे ही, उनके गोत्र भी पृथक् थे । यही नहीं, उनकी मृत्यु के समय में भी अन्तर है । माधवाचार्य ने बुक्क के शासन की समाप्ति ( १३७९) के कुछ पूर्व ही संन्यास ग्रहण कर लिया था और शृंगेरी मठ में प्रतिष्ठित हो चुके थे । उधर यह दान-पत्र १३९० का है अतः दोनों में कोई तारतम्य दिखलाई नहीं पड़ता । फिर भी माधवाचार्य महाराज बुक्क के यहाँ मुख्य मन्त्री थे तथा दूसरे माधव मन्त्री से भिन्न थे । शृंगेरी मठ में माधवाचार्य बाद में विद्यारण्य के नाम से शंकराचार्य बन गये थे । विद्यारण्य के विषय में अहोबल पण्डित ने अपने तेलुगु - व्याकरण में लिखा है
वेदानां भाष्यकर्ता विवृतमुनिवचा धातुवृत्तविधाता, प्रोद्यद्विद्यानगर्यो हरिहरनृपतेः सार्वभौमत्वदायी । वाणी नीलाहिवेणी सरसिजनिलया किंकरीति प्रसिद्धा, विद्यारण्योऽग्रगण्योऽभवदखिलगुरुः शंकरो वीतशङ्कः ॥
इससे माधवाचार्य ( विद्यारण्य ) के विषय में सूचना प्राप्त होती है कि ये ही माधवीयधातुवृत्ति के भी रचयिता थे । विद्यारण्य के रूप में भी इन्होंने बहुत से ग्रन्थ लिखे थे जैसे - पञ्चदशी, वैयासिक -न्यायमाला आदि ।
यह किंवदन्ती है कि माधवाचार्य ने ही बुक्क के बड़े भाई हरिहर प्रथम को विजयनगर साम्राज्य की स्थापना का परामर्श दिया था । उस समय उस स्थान का नाम विद्यानगर रखा गया था । बाद में धीरे-धीरे वह विजयनगर हो गया । यह किसी घटना से या भाषाविज्ञान से अनुप्राणित हुआ होगा । हरिहर की मृत्यु के पश्चात् माधवाचार्य बुक्क के गुरु बने और उस समय शिष्य के आदेश से उन्होंने बहुत से ग्रन्थ लिखे । संन्यास की अवस्था में ये प्रायः १३७९ ई० से १३८५ ई० तक रहे । मृत्यु के समय इनकी अवस्था प्रायः ९० की थी ( १३८५ ) । अतः माधवाचार्य का जीवन-काल १२९५ ई० से १३८५ ई० तक मानना ठीक है ।
माधवाचार्य और सायणाचार्य ने अपने गुरुओं का उल्लेख बहुत श्रद्धा से किया है । इनके तीन गुरु थे - विद्यातीर्थ, भारतीतीर्थ और श्रीकण्ठ । भारतीतीर्थ माधव के दीक्षागुरु थे जिनकी मृत्यु के पश्चात् ( १३८० ई० ) माधव ( विद्यारण्य ) शंकराचार्य के पद पर आये । विद्यातीर्थ और श्रीकण्ठ इनके विद्यागुरु थे । सायण ने वेदभाष्यों के आरंभ में विद्यातीर्थ का नाम देते हुए