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________________ पूर्णप्रश-दर्शनम् २१३ विरोध होगा और इसलिए उन्हें ( भेदशून्य ब्रह्म के प्रतिपादक वाक्यों को ) हम प्रामाणिक नहीं मान सकते । उदाहरणार्थ प्रत्यक्ष को ही लें, 'यह ( वस्तु ) उस ( वस्तु ) से भिन्न है। इस प्रकार नील-पीत आदि पदार्थों में भेद की सत्ता को वह (प्रत्यक्ष) प्रमाणित करता है। विशेष-भेद तीन प्रकार के हैं, क्योंकि उनमें प्रतियोगी तीन प्रकार के होते हैंसजातीय, विजातीय तथा स्वगत । जिस भेद में प्रतियोगी ( Opponent ) अपनी जाति ( Class ) का ही हो उसे सजातीय भेद कहते हैं। परमात्मा का जीवात्मा से किया गया भेद या एक वृक्ष का दूसरे वृक्ष से किया गया भेद सजातीय ( Homogeneous ) भेद है। प्रतियोगी दूसरी जाति का होने पर भेद विजातीय होता है, जैसे परमात्मा का आकाशादि प्रतियोगियों से दिखलाया गया भेद या पेड़ का पत्थर से भेद । दोनों की दो जातियां होने से भेद विजातीय ( Heterogeneous) है। स्वगत (Internal ) भेद वह है जिसमें किसी वस्तु का उसके अवयवों (स्वगत ) से भेद कराया जाय । उदाहरणार्थ; परमात्मा का अपने अन्दर विद्यमान करुणा, आनन्द आदि विशेषणों से भेद या वृक्ष का भेद फल, फूल, पत्तों से करना स्वगत-भेद है।। उक्त तीनों भेदों का निषेध 'सदेव सोम्येदमन आसीत् । एकमेवाद्वितीयम्' (छा० धारा इत्यादि वाक्यों से ब्रह्म के विषय में होता है। श्रुति का अर्थ यही है कि तत्त्व एक ही था उसमें कोई भेद नहीं, किन्तु यदि उन्हें सगुण मानते हैं तो गुणों के साथ होनेबाला कम-से-कम स्वगत भेद तो उनमें अवश्य ही होता। अतः उक्त श्रुति का विरोध द्वैतमत का प्रतिपादन करने से होता है। किन्तु मध्वाचार्य ऐसी श्रुतियों की प्रामाणिकता इसलिए स्वीकार नहीं करते कि परमात्मा में भेद का प्रतिपादन करनेवाले बहुत से प्रमाण हैं । उनका भी अपलाप करना सम्भव नहीं है। __इसके बाद विभिन्न प्रमाणों से भेद की सिद्धि की चेष्टा की जाती है। प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द-तीनों प्रमाण के रूप में रखे जाते हैं। प्रत्यक्ष-प्रमाण तो स्पष्ट बतलाता है कि संसार में भेद की सत्ता है। नील से पीत, मनुष्य से पशु, पुस्तक से पाषाण ज्या भिन्न नहीं ? (३. प्रत्यक्ष से भेद-सिद्धि-शङ्का ) अथ मन्येथाः-कि प्रत्यक्ष भेदमेवावगाहते किंवा मिप्रतियोगिघटितम् ? न प्रथमः, मिप्रतियोगिप्रतिपत्तिमन्तरेण तत्सापेक्षस्य भेदस्याशक्याध्यवसायात् । द्वितीयेऽपि मिप्रतियोगिग्रहणपुरःसरं भेदग्रहणमथवा युगपत्तत्सर्वग्रहणम् ? - न पूर्वः, बुद्धविरम्य व्यापाराभावात् । अन्योन्याश्रयप्रसङ्गाच्च । नापि चरमः, कार्यकारणबुद्धयोयोगपद्याभावात् । मिप्रतीतिहि भेदप्रत्ययस्य
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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