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सर्वदर्शनसंग्रहे
विशिष्टाद्वैत है जिसमें ईश्वर को चिद् अचिद से विशिष्ट मानकर, तीन तत्त्व प्रतिपादन करने पर भी अद्वैत ( Monism ) का पक्ष लिया गया है। मध्व इस प्रच्छन्नता से दूर भागते हैं । सीधे द्वैतमत ( Dualism ) का ही प्रस्थान रखते हैं जिसमें स्वतन्त्र परमेश्वर तथा परतन्त्र जीव को स्वीकार किया जाता है । दोनों ही श्रोत दार्शनिक हैं, श्रुतियों पर आधारित हैं, पञ्चवरात्र का स्मृति रूप में आधार लेते हैं— तर्कबल से अपने सिद्धान्तों की स्थापना करते हैं, प्रच्छन्न तार्किक हैं । इसलिए बहुत दूर तक दोनों में साम्य है ।
परन्तु रामामुज मध्व से कुछ अधिक चतुर हैं, क्योंकि एक ओर तो लम्बी-चौड़ी भूमिका बाँधकर जैनों के स्याद्वाद की निन्दा करते हैं ( देखिये, आरम्भिक अंश ), दूसरी ओर कहते हैं कि - 'सर्वं तत्त्वम्, भेदोऽभेदो भेदाभेदश्च' । अन्तर इतना ही है कि जैन सात विरोधी वाक्य रखते हैं, रामानुज तीन से ही संतुष्ट हैं । पर तत्त्व वही है । रामानुज छिपकर चलते हैं कि तत्त्व अद्वैत है, पर उसके दो विशेषण भी हैं। मध्व बेचारे सीधे
सादे आदमी बिना किसी दुराव के दो तत्त्व पृथक्-पृथक् मान लेते हैं । दोनों आचार्यों को अपने अभीष्ट अर्थ की सिद्धि के लिए मूल श्रुतियों, वेदान्तसूत्रों आदि को तोड़ना-मरोड़ना पड़ा है जिसमें कोई भी नहीं हिचकते ।
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( २. द्वैतवाद के तत्त्व - भेद की सिद्धि )
तन्मते हि द्विविधं तत्त्वं स्वतन्त्रपरतन्त्रभेदात् । तदुक्तं तत्त्वविवेके१. स्वतन्त्रं परतन्त्रं च द्विविधं तत्त्वमिष्यते ।
स्वतन्त्रो भगवान्विष्णु निर्दोषोऽशेषसद्गुणः ॥ इति ॥
इन ( आनन्दतीर्थ ) के मन से दो प्रकार के तत्त्व हैं— स्वतंत्र और परतंत्र । तत्त्वविवेक नाम के ग्रन्थ में कहा गया है--' दो प्रकार का तत्त्व रखा जाता है, स्वतन्त्र और परतन्त्र । इनमें स्वतंत्र स्वयं भगवान् विष्णु हैं जो निर्दोष हैं तथा [ स्वतन्त्रता, शक्ति, विज्ञान, सुख आदि ] सभी अच्छे-अच्छे गुणों से भरे हुए हैं ।'
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ननु सजातीय- विजातीय-स्वगत- नानात्वशून्यं ब्रह्म तत्त्वमिति प्रतिपादकेषु वेदान्तेषु जागरूकेषु कथमशेषसद्गुणत्वं कथ्यत इति चेत्, मैवम् । भेदप्रमापकबहु प्रमाणविरोधेन तेषां तत्र प्रामाण्यानुपपत्तेः । तथा हि प्रत्यक्षं तावदिदमस्माद्भिन्नम् इति नीलपीतादेर्भेदमध्यक्षयति ।
[ अद्वैत वेदान्ती ऐसी शंका कर सकते हैं- ] ब्रह्मतत्त्व सजातीय ( अपनी जाति मे), विजातीय ( दूसरी जाति के पदार्थों से ) तथा स्वगत ( अपने-आप में विशेषणों के द्वारा ), इन तीनों भेदों ( नानात्व) से रहित है - इस प्रकार की बातें प्रतिपादित करनेवाले उपनिषद् वाक्यों के रहते हुए आप लोग ईश्वर के विषय में यह कैसे कहते हैं कि वह भी सद्गुणों से भरा हुआ है ? [ हमारा उत्तर यह है कि ] ऐसी बात नहीं है, बहुत से ऐसे वाक्य हैं जो भेद को ही प्रमाणित करते हैं, उनके साथ उपनिषद् - वाक्यों का