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________________ सर्वदर्शनसंग्रहेकारणम् । एवं प्रतियोगिप्रतीतिरपि । सन्निहितेऽपि मिणि व्यवहितप्रतियोगिज्ञानमन्तरेण भेवस्याज्ञातत्वेनान्वयव्यतिरेकाभ्यां कार्यकारणभावावगमात् । तस्मान्न भेदप्रत्यक्ष सुप्रसरमिति चेत् । [ भेद-ज्ञान को अस्वीकार करते हुए शंकराचार्य के अनुयायी भेद के विषय में शंका करते हैं-] आप क्या मानते हैं, क्या प्रत्यक्ष ( Perception ) सीधे भेद का ही ज्ञान करा देता है या वह धर्मी ( वस्तु ) तथा उसके प्रतियोगी ( विरोधी वस्तु ) के ज्ञान के आधार पर [ भेद का ज्ञान कराता है ] ?' पहला विकल्प नहीं मान सकते, क्योंकि जब तक धर्मी का और उसके प्रतियोगी ( Opponent ) का ज्ञान नहीं होगा, तब तक उन्हीं दोनों पर निर्भर करनेवाले भेद का ज्ञान प्राप्त करना असम्भव है [ आधार-धर्मी और प्रतियोगी के ज्ञान के बिना आधेय का केसे ज्ञान होगा? नील और पीत-दोनों को यथावत् समझने पर ही दोनों भेद समझ सकते हैं । यदि सीधे भेद का प्रत्यक्ष करने का दम्भ रखें तो व्यर्थ है, असम्भव है।] यदि दूसरा विकल्प लेते हैं [ कि धमों और प्रतियोगी के आधार पर भेद का ज्ञान होता है ] तो पूछे कि भेद का यह ज्ञान धर्मी और प्रतियोगी के ज्ञान के पश्चात् होता है या सबों ( तीनों ) का ज्ञान एक हो साथ ( युगपत् Simultaneously ) हो जाता है। उक्त प्रश्न का प्रथम विकल्प ग्राह्य नहीं है, क्योंकि बुद्धि जब एक बार ठहर जाती है तब आगे कार्य-संचालन नहीं कर पाती। [१ 'गङ्गायां घोषः' में गङ्गा शब्द एक विशेष प्रकार के जल का अर्थ देता है। उतने व्यापार के बाद ही वह शब्द विरत हो जाता है । घोष से सम्बन्ध दिखलाने के लिए गङ्गा का तटरूपी अर्थ वह शब्द नहीं बतला सकता। ऐसा करने से 'गङ्गा के किनारे गाँव का अर्थ बिल्कुल संगत हो जाता है । किन्तु वहाँ तक तो उसकी पहुँच ही नहीं है, करे तो क्या करे ? इसलिए तट-रूप अर्थ को उपस्थापना, लक्षणा-शक्ति द्वारा, सामीप्य सम्बन्ध से, 'गङ्गा' शब्द का अर्थ 'जल' ही कर सकता है; जल के निकट होने के कारण 'तट' अर्थ हो गया। गङ्गा शब्द कुछ नहीं कर सकालक्षणा अर्थ की ही हुई, शब्द की नहीं । सारांश यह कि शब्द अपना व्यापार करके विरत हो जाता है । २. कोई धनुर्धर बहुत तेजी से बाण चलाता है, यद्यपि बाण में ६० गज जाने की सामर्थ्य है। परन्तु ३० गज जाते ही उसे कोई रोक लेता है, बस उसका व्यापार रुक गया, एक अंगुल भी वह बाण अब नहीं बढ़ सकता । अतः कर्म रुक जाने पर अपना अगला व्यापार बन्द कर देता है । ३. धर्मी और प्रतियोगी का ज्ञान कर लेने पर बुद्धि विरत हो जाती है, लाख चेष्टा करने पर भी 'भेद' को अपना विषय नहीं बना सकती। १. किसी भी भेद में दो बातें अनिवार्य हैं । एक धर्मों जिससे भेद कराया जाता है, इसे ही मूल वस्तु भी कहते हैं, दूसरा प्रतियोगी अर्थात विरोधी वस्तु । 'नीलं पीताद् भिन्नम्' में नील धर्मों है, पीत प्रतियोगी।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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