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________________ जैमिनि-दर्शनम् ४६५ अलावे और कोई जान ही नहीं सकता । [ संसार में सर्वज्ञ कोई भी नहीं है, अतः विवश होकर वेदों को पौरुषेय ही स्वीकार करना पड़ेगा । ] यही नहीं, वेदों को पौरुषेय मानने के लिए प्रमाण भी है - ( १ ) वेद के वाक्य पौरुषेय हैं, क्योंकि ये वाक्य हैं, जैसे कालिदासादि के वाक्य । ( २ ) वेद के वाक्य आप्त ( यथार्थवक्ता ) के द्वारा रचे गये हैं, क्योंकि ये प्रामाणिक वाक्य हैं, जैसे मनु आदि के वाक्य | ननु - ४. वेदस्याध्ययनं सर्वं गुर्वध्ययनपूर्वकम् । वेदाध्ययनसामान्यादधुनाध्ययनं यथा ॥ ( श्लो० वा० ७।३६६ ) इत्यनुमानं प्रतिसाधनं प्रगल्भत इति चेत् — तदपि न प्रमाणकोटि प्रवेष्टुमीष्ट । ५. भारताध्ययनं सर्वं गुर्वध्ययनपूर्वकम् । भारताध्ययनत्वेन साम्प्रताध्ययनं यथा ॥ इत्याभाससमानयोगक्षेमत्वात् । अब प्रश्न हो सकता है कि 'वेद का सम्पूर्ण अध्ययन पहले से गुरु के अध्ययन की अपेक्षा रखता है, क्योंकि वेदाध्ययन दोनों ही दशाओं में एक ही रहता है [ जैसे पहले का अध्ययन ] वैसे ही आज का अध्ययन [ इससे परम्परा की अविच्छिन्नता मालूम पड़ती है ] - श्लोकवार्तिक में दिये गये इस अनुमान की, जिसमें पूर्वपक्षी के विरुद्ध साध्य को सिद्ध करने की सामर्थ्य है, प्रबलता होगी । [ मीमांसक लोग कहते हैं कि वेद का अध्ययन शिष्य गुरु से करता है, उसके पूर्व भी तो गुरु ने अध्ययन किया था । यह क्रम चलता ही रहा है । कोई अध्ययन ऐसा नहीं जो गुर्वध्ययन के बिना ही हुआ हो । यदि पौरुषेय-पक्ष स्वीकार करते हैं तो वेद के रचयिता पुरुष के द्वारा किया गया वेदाध्ययन तो बिना गुर्वध्ययन के ही सिद्ध होगा जो असंगत है । अतः हमें वेदों को अपौरुषेय ही मानना पड़ेगा, क्योंकि सारे अध्ययन गुर्वव्ययन के बाद होते हैं । इस अनुमान से पूर्वपक्षी की बातों का खण्डन होता है, अत: यह 'प्रतिसाधन' ( प्रतिकूल सिद्धि करनेवाला ) अनुमान है । ] यह प्रश्न प्रमाण की कोटि में नहीं आ सकता, क्योंकि निम्न रूप से प्रतीत होनेवाले अनुमान से इस अनुमान में कोई अन्तर नहीं । ( दोनों का योगक्षेम अर्थात् जोवन एक ही तरह का है ) – 'महाभारत का सारा अध्ययन गुरु के अध्ययन की अपेक्षा रखता है, क्योंकि महाभारत का अध्ययन है, जैसा पहले वैसा ही आज का अध्ययन' - [ उक्त अनुमान की तुलना में ही यह अनुमान दिया गया है तो क्या महाभारत को भी आप अपौरुषेय ही मान ३० स० सं०
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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