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________________ ४६४ सर्वदर्शनसंग्रहे[पूर्वपक्षी कहते हैं कि ] आपका यह कहना कोई दम नहीं रखता ( तर्क दुर्बल है)। कारण यह है कि हेतु का विशेषण ( सम्प्रदायाविच्छेदे सति = सम्प्रदाय के अविच्छिन्न रहने पर भी ) जो आपने दिया है वह असिद्ध है। जो लोग वेद को पौरुषेय मानते हैं । वे लोग प्रलयकाल में सम्प्रदाय का विच्छिन्न होना भी स्वीकार करते हैं। इसके अलावे, आप यह तो बतलावें कि 'कर्ता का स्मरण नहीं किया जाता' इसका क्या अर्थ है क्या उसका कर्ता प्रमाणों से सिद्ध नहीं होता या स्मरण का विषय ( गोचर ) नहीं होता? पहला विकल्प ठीक नहीं है, क्योंकि उसके कर्ता परमेश्वर की सिद्धि प्रमाणजन्य ज्ञान ( प्रमिति ) से होती है । [ वेद में कई वाक्य हैं जो ईश्वर की सिद्धि करते हैं-'अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद् यदृग्वेदो यजुर्वेदः'। बृ० उ० २।४।१०), 'तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत: ऋचः सामानि जज्ञिरे। छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत' ( ऋ० १०॥ ९०९), 'इदं सर्वमसृजत ऋचो यजूंषि सामानि' (बृ० उ० १।२५ )। इन सभी श्रुतियों में ईश्वर वेद के कर्ता उद्घोषित किये गये हैं, अतः उसकी सिद्धि के लिए आगम प्रमाण तो है ही।] न द्वितीयः । विकल्पासहत्वात् । तथा हि-किमेकेनास्मरणमभिप्रयते सर्वैर्वा ? नाद्यः । 'यो धर्मशीलो जितमानरोषः' इत्यादिषु मुक्तकोक्तिषु व्यभिचारात् । न द्वितीयः सर्वास्मरणस्यासर्वज्ञदुर्ज्ञानत्वात् । पौरुषेयत्वे प्रमाणसम्भवाच्च । वेदवाक्यानि पौरुषेयाणि वाक्यत्वात् कालिदासादिवाक्यवत् । वेदवाक्यान्याप्तप्रणीतानि, प्रमाणत्वे सति वाक्यत्वान्मन्वादिवाक्यवदिति । दूसरा विकल्प [ कि वेद का कर्ता स्मरण का विषय नहीं बनता ] भी ठीक नहीं, क्योंकि यह निम्नलिखित विकल्पों को सह नहीं सकता । वे ये हैं-क्या एक के द्वारा स्मरण करना अभिप्रेत है या सबों के द्वारा ? पहला पक्ष नहीं लिया जा सकता, क्योंकि ऐसा करने से 'यो धर्मशीलः जितमानरोषः' (जो धार्मिक है तथा मान, रोष को जीत चुका है)-इत्यादि मुक्तक (फुटकर ) श्लोकों में भी अपौरुषेयत्व की प्राप्ति हो जायगी। [ कहने का तात्पर्य यह है कि मुक्तकों का भी रचयिता होता है, भले ही परम्परा याद न करे । 'उपमा कालिदासस्य' आदि मुक्तक इसी तरह के हैं। रचयिता के समकालिक लोग तो उसे याद करते ही होंगे । सम्भव है, कितने लोगों को अभी भी मालूम हो, परन्तु कुछ लोगों को तो मालूम नहीं ही है । अतः कुछ लोगों के द्वारा कर्ता का स्मरण न किये जाने से वेद को अपौरुषेय नहीं कह सकते, क्योंकि ऐसा करने से इन सुभाषित मुक्तकों को भी अपौरुषेय मानना पड़ेगा, जब कि इनके रचयिता कोई पुरुष अवश्य थे। ] दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि वेद के कर्ता का स्मरण कोई भी नहीं कर रहा है-यह तो सर्वज्ञ के
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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