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सर्वदर्शनसंग्रहे
किसी गुण या दोषाभाव को कारण बनाना कल्पना - गौरव ( अनावश्क कल्पना करना ) नामक दोष का भागी होगा ।
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अब यदि कोई कहे कि दोष को तो आप ( मीमांसक ) अप्रमा का कारण मानते हैं तो दोष के अभाव को प्रमा का कारण मानना अनिवार्य है - तो हम कहेंगे कि ऐसी बात नहीं हो सकती । दोषाभाव केवल अप्रमा के प्रतिबन्धक के रूप में हम मानते हैं, इसकी सिद्धि दूसरे रूप में होती है । [ जैसे घट के पूर्व निश्चित रूप से रहने पर भी दण्डत्व या rus के रूप को हम कारण नहीं मान सकते । कारण नहीं रहने पर भी उसकी पूर्ववृत्ति ( पहले रहने ) का नियम तो रहेगा ही क्योंकि घट का कारण दण्डत्व या दण्डरूप भले ही न हो, दण्ड तो है । दण्ड चूंकि दण्डत्व और दण्डरूप के बिना रह नहीं सकता अतः इन्हें घट के पूर्व निश्चित रूप से रहना जरूरी है । दण्डत्वादि की सिद्धि दूसरे रूप में होती है ( अन्यथा - सिद्ध ) या इन्हें नहीं मानने से घट की सिद्धि नहीं होगी ( अन्यथा + असिद्ध ) उसी प्रकार प्रमाज्ञान के पूर्व में नियमतः रहने पर भी दोषाभाव को प्रमाज्ञान का कारण नहीं कह सकते, पर उसे पूर्व में रहना जरूरी है क्योंकि दोष अप्रमा का कारण है, दोष रहने पर प्रमा की उत्पत्ति नहीं हो सकती । इस प्रकार जहाँ प्रमा का ज्ञान होता है उन स्थलों में नियमतः पूर्व में रहनेवाला दोषाभाव इतना काम कर देता है कि अप्रमा के ज्ञान का प्रतिबन्ध हो जाये । प्रमा- ज्ञान के उत्पादन में उसकी कोई उपयोगी क्रिया नहीं होती । इस तरह दोषाभाव प्रमाज्ञान का कारण नहीं, दूसरे रूप में उसकी सिद्धि होती है ( अन्यथा - सिद्ध ) । ]
१२ . तस्माद् गुणेभ्यो दोषाणामभावस्तदभावतः ।
अप्रामाण्यद्वयासत्त्वं तेनोत्सर्गोऽनपोदितः ॥ इति ॥
[ यदि प्रमाज्ञान के लिए गुणों को कारण के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे तो गुणों को मानना ही व्यर्थ है; इसी के उत्तर में कहते हैं ] - इस प्रकार गुणों से दोषों के अभाव का बोध होता है और दोषों के अभाव से ( संशय और विपर्यय न हो सकने के कारण ) दोनों प्रकार के अप्रामाण्यों (निश्चित अप्रामाण्य तथा सन्दिग्ध अप्रामाण्य ) की सत्ता नहीं रहती । उसके बाद ( अप्रामाण्य के अभाव में ) सामान्य ( उत्सर्ग ) प्रामाण्य का बहिष्कार नहीं किया जा सकता [ क्योंकि अपवाद न रहने पर उत्सर्ग की ही शक्ति रहती है । ]
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विशेष - दूसरी पुस्तकों में – 'तेनोत्सर्गो नयोदितः ' पाठ है, जिसका अर्थ होगा कि अप्रामाण्य का अभाव रहने से उत्सर्ग अर्थात् सामान्य का उदय स्वभावत: ( नयेन ) ही हो जायगा । इस प्रकार उत्पत्ति-विषयक प्रामाण्य का स्वतः सिद्ध होना प्रमाणित किया गया । अब ज्ञति ( ज्ञान ) के विषय में भी जो प्रामाण्य होता है, उसकी स्वतः सिद्धि प्रमाणित की जाती है ।