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________________ सर्वदर्शनसंग्रहे जैसे घर में ) का आरोप आत्मा पर औपचारिक रूप में करें तो शरीर और आत्मा में भेद होगा ही। जहाँ भेद स्पष्ट हो वहाँ पर माणवक पर सिंह शब्द के आरोप की तरह साम्प्रतिक ( कभी-कभी प्रयुक्त ) गौणता होने पर अथवा जहाँ भेद स्पष्ट हो जहाँ पर सरसों आदि के रस पर शब्द के आरोप की तरह निरूढ़ (परम्परा से प्रयुक्त ) गौणता होने पर . गौण और मुख्य अर्थों में भेदज्ञान निश्चित होता है। [ कहने का अर्थ यह है-जहाँ बुद्धिपूर्वक एक के धर्म का दूसरे पर आरोप करते हैं वहां पर पहले दोनों का भिन्न रूप में ज्ञान होना आवश्यक है । 'सिंहो माणवकः' वाक्य में सिंह से माणवक का भेद प्रसिद्ध है । क्रूरता आदि गुणों को देखकर माणवक पर सिंह का आरोप हुआ है। यहाँ पर गौणता साम्प्रतिक (Occasional ) है, निरूढ़ ( Constant ) नहीं। माणवक पर सिंह का आरोप तो कभी-कभी ही होता है। जब गौण होने पर भी शब्द प्रयोग या प्रसिद्धि के कारण रूढ़ शब्द के समान सदा प्रयुक्त होता है तो उसे निरूढ़ गौणता कहते हैं। तेल का अर्थ है तिल का रस जो मुख्य अर्थ है । अब गौणरूप से तैल का प्रयोग दूसरे बीजों के रसों पर भी होता है, जैसे-सार्षपः तैल: ( सरसों का तेल )। ऐसा प्रयोग रूढ़ हो गया है इसलिए इसे निरूढ़ गोणता कहते हैं । स्मरणीय है कि सरसों और तिल के तेलों में भेद विद्यमान रहने पर भी तिरोहित हो गया है। 'तैल' शब्द की गौणता की प्रतीति भी भेदज्ञानवालों को ही हो सकती है, क्योंकि इस तरह का प्रयोग बिल्कुल रूढ़ हो गया है। किसी भी दशा मेंआहार्य आरोप को स्थिति में, आरोप्यमाण और आरोप के विषय का भेदज्ञान होना आवश्यक है । जहाँ भी गौणता है वहाँ भेदज्ञान भी होगा । आत्मा देह से भिन्न रूप में प्रतीत नहीं होता इसलिए यहाँ आहार्य आरोप से गौण वृत्ति का सहारा नहीं लिया जा सकता है। ] अथ मम शरीरमिति भेदभानसम्भवाद्गौणत्वं मन्येथाः, तदयुक्तम् । अहंशब्दार्थस्य देहादिभ्यो निष्कृष्यासाधारणधर्मवत्त्वेन प्रतिभासमानत्वाभावात् । अपरथा लोकायतिकमतं नोदयमासादयेत् । मम शरीरमित्युक्तिस्तु 'राहोः शिरः' इतिवदौपचारिकी । [ वेदान्ती लोग पूर्वपक्षी का उत्तर दे रहे हैं । ] यदि आप लोग ( = पूर्वपक्षी ) मम शरीरम्' ( मेरा शरीर ) इस वाक्य में भेदज्ञान की सम्भावना रखते हुए ( आहार्य आरोप से ही ) गौणता मानते हैं तो यह भी ठीक नहीं। देहादि से बिल्कुल अलग हटकर असाधारण धर्म से युक्त पदार्थ के रूप में 'अहम्' शब्द का अर्थ प्रतीत नहीं होता । [ 'मम शरीरम्' में देहादि को ही आत्मा के रूप में समझते हैं। यदि आत्मा को देहादि से पृथक् करके असाधारण धर्म से युक्त पदार्थ के रूप में उसका अनुभव ही करते तो ऐसे अनुभव के विरुद्ध ] लोकायतिक-मत [ कि देह ही आत्मा है ] उत्पन्न नहीं हो सकता था। [जब देह में आत्मा की प्रतीति होती है तो 'मम शरीरम्' वाक्य में स्पष्ट प्रतीत होनेवाला नंद कहाँ रहेगा ? इसी पर उत्तर देते हैं कि ] 'मेरा शरीर' इस तरह की युक्ति
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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