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________________ शांकर-दर्शनम् ६६१ रितात्मभावस्य देहादेः स्वसमानाकृतिशिलापुत्रकादिवज्ज्ञातृत्वायोगात् । न च ज्ञातृत्वमप्युपचरितम् । प्रयोक्तः स्वप्रतिपत्तिप्रकाशके प्रयोगे प्रतिपत्तत्वोपचारानुपपत्तेः। [आत्मा के धर्मों का शरीर पर आरोप–इस पक्ष को लेकर शंका हो रही है । यदि ऐसा कहें कि ] जैसे किसी राजा के सभी काम करनेवाले नौकर को वह राजा औपचारिक ( लाक्षणिक ) रूप से कहता है कि यह भद्रसेन मेरी आत्मा है, उसी प्रकार आत्मा के वाचक 'अहम्' शब्द का देह पर उपचार ( आरोप ) होता है । [ राजा का आरोप नौकर पर = आत्मा का आरोप देह पर । ] इसके उत्तर में हम कहेंगे कि ऐसा मत कहो । आरमा के धर्मों का आरोप ( उपचार ) हो जाने पर भी शरीर उसी तरह ज्ञाता नहीं बन सकता जिस प्रकार शरीर के समान आकारवाली पाषाण प्रतिमा [ अचेतन होने के कारण ज्ञाता नहीं बन सकती। इसलिए 'अहमिह अस्मि सदने जानानः' इस वाक्य में 'जानानः' ( जाननेवाला ) शब्द की सिद्धि नहीं हो सकती। ] ऐसा भी नहीं कह सकते कि [ जैसे शरीर पर आत्मा की कल्पना हुई है वैसी ही ] उसका ज्ञाता होना भी कल्पित ( उपचरित ) है। ज्ञाता के अपने ज्ञान के प्रकाशक प्रयोग में ज्ञातृत्व का उपचार ( कल्पना) नहीं हो सकता। [ ज्ञाता अपने ज्ञान के प्रकाशन के लिए अपने ज्ञान के अनुसार वाक्यों का प्रयोग करता है-वह चाहे मुख्य वृत्ति से करे या गौण वृत्ति से, लेकिन ज्ञाता ही इसे कर सकता है दूसरा नहीं । जब वह ज्ञाता गौणवृत्ति से प्रयोग करना चाहता है तब वह ऐसे धर्म की कल्पना करता है जो कहीं पर अविद्यमान भी हो सकता है । फलतः ज्ञाता, कल्पना करनेवाला और प्रयोग करनेवाला-ये तीनों एक ही हैं । 'अहं' से उसी का बोध होता है। यदि 'अहं' से देह का ही बोध करें जिस पर ज्ञातृत्व की कल्पना की गई हो तो वह देह अपने ही अन्तर्गत रहनेवाले ज्ञातृत्व की कल्पना करनेवाली भी कैसे हो जायगी ? दूसरे, जिस देह पर ज्ञातृत्व कल्पित हो वह वास्तव में ज्ञाता है नहीं-क्योंकि ज्ञातृत्व कल्पित है इसलिए वह प्रयोक्ता भी नहीं बन सकती। कल्पित वस्तु से वास्तव में कोई सचमुच का काम नहीं ले सकते । कल्पित अग्नि से कोई जल नहीं सकता और न कल्पित सिंह किसी को खा सकता है । देह पर आत्मा के धर्मों का आरोप होने से देह आत्मा की तरह ज्ञाता, प्रयोक्ता और कल्पक नहीं बन सकती। आरोप कुछ और है, वास्तविकता कुछ और । ] अथ देहधर्मः प्रादेशिकत्वमात्मन्युपचर्येत तदा देहात्मनो देन भवितव्यम् । प्रसिद्धभेदे माणवके सिंहशब्दवत्साम्प्रतिकगौणत्वे तिरोहितभेदेन सार्षपादौ रसे तेलशब्दवन्निरूढगौणत्वे वा गौणमुख्ययोर्भेदाध्यवसायस्य नियतत्वात्। [ शरीर का आरोप आत्मा पर, इस पक्ष पर विचार करने के लिए शंका करते हैं । वे कहते हैं कि ] अब यदि शरीर के धर्म अर्थात् प्रादेशिकत्व ( किसी एक स्थान में होना
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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