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________________ ४६२ सर्वदर्शनसंग्रहेहमें स्वीकार है कि अध्यापन-विधि से अर्थावबोध का तात्पर्य (प्रयोग ) नहीं निकल सकता । फिर भी जो व्यक्ति अंगों के साथ वेद का अध्ययन करेगा, वह पद और पदार्थ की संगति ( सम्बन्ध ) का ग्रहण तो करेगा ही । जैसे पुरुष के द्वारा लिखे गये ग्रन्थों में [अर्थ का बोध होता है ] वैसे ही व्यक्ति की आम्नाय ( वेद ) में भी अर्थबोध की प्राप्ति होगी ही। [विधि न रहने पर भी बोधकत्व-शक्ति से ही अर्थबोध हो जायगा । ] ___ अब शंका हो सकती है कि जैसे 'इस वाक्य में प्रतीत होनेवाले (विषभोजनरूपी ) अर्थ की विवक्षा नहीं है क्योंकि माता के वाक्य का तात्पर्य है 'उसके घर पर भोजन मत करना'-इस तरह का प्रतिषेध करना [ माता चाहती है ]; ठीक उसी तरह कहीं वेद का अक्षरार्थ उसके वास्तविक अभिप्राय (विवक्षा ) को प्रकट न कर पाये तो पहले जिस तरह विषयाभाव और प्रयोजनाभाव आपत्तियां लगाई गई थीं वे पुनः इसे दूषित कर देंगी। [ वेद को समझने का कोई प्रयोजन नहीं रहेगा और न यह विचार का विषय ही रह सकता है।] हमारा उत्तर है कि ऐसा मत कहो। दृष्टान्त और प्रस्तुत प्रसंग में विषमता सम्भव है । ( दोनों समान नहीं हैं कि एक दूसरे की सहायता कर सकें।) विशेष-किसी माता ने अपने पुत्र को शत्रु के घर पर न खाने का उपदेश दिया, किन्तु उसमें व्यञ्जना-वृत्ति का आश्रय लिया-'विष खा लो, परन्तु उसके घर भोजन मत करो।' माता अपने पुत्र को विष खाने के लिए कभी प्रवृत्त नहीं कर सकती, अतः विषभोजन का विधानरूपी अर्थ यहाँ विवक्षित नहीं है, प्रत्युत माता उसे शत्रु के घर न खाने का प्रतिषेधात्मक उपदेश ही देती है। यही अर्थ विवक्षित है। काव्य-प्रकाश के पंचम उल्लास में मीमांसाओं के द्वारा व्यञ्जनावृत्ति के प्रश्न पर विचार किये जाने के सिलसिले में यह उदाहरण दिया गया है। तो इसी आधार पर शंका करनेवाले कहते हैं कि हो सकता है वेद का शब्दार्थ हमने कुछ किया और विवक्षित अर्थ उससे भिन्न हो। वैसी अवस्था में तो वेदार्थ जानना, न जानना बराबर हो गया। परन्तु शंका करनेवाले भ्रम में हैं । उपर्युक्त दृष्टान्त से प्रस्तुत प्रसंग का सम्बन्ध है ही नहीं । इसे आगे स्पष्ट करते हैं। विषभोजनवाक्यस्याप्तप्रणीतत्वेन मुख्यार्थपरिग्रहे बाधः स्यादिति विवक्षा नाश्रीयते । अपौरुषेये तु वेदे प्रतीयमानोऽर्थः कुतो न विवक्ष्यते। विवक्षिते च वेदार्थे यत्र यत्र पुरुषस्य सन्देहः स सर्वोऽपि विचारशास्त्रस्य विषयो भविष्यति । तन्निर्णयश्च प्रयोजनम् । तस्मादध्यापनविधिप्रयुक्तेनाध्ययनेनावगम्यमानस्यार्थस्य विचारार्हत्वाद्विचारशास्त्रस्य वैधत्वेन विचारशास्त्रमारम्भणीयमिति राद्धान्तसंग्रहः। उपर्युक्त दृष्टान्त में, विष भोजन का वाक्य चूंकि आप्त (प्रामाणिक, यहाँ पर माता ही है ) व्यक्ति के द्वारा उच्चरित है और यदि इसका मुख्यार्थ ग्रहण :करेंगे तो इसका
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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