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________________ १९५ रामानुज-दर्शनम् एवमुपासनाकर्मसमुच्चितेन विज्ञानेन द्रष्टृदर्शने नष्टे भगवद्भक्तस्य तन्निष्ठिस्य भक्तवत्सलः परमकारुणिकः पुरुषोत्तमः स्वयाथात्म्यानुभवानुगुणनिरवधिका नन्दरूपं पुनरावृत्तिरहितं स्वपदं प्रयच्छति । स्मृति: तथा च १९. मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् । नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धि परमां गताः ॥ ( गी० ८।१५ ) इति । २०. स्वभक्तं वासुदेवोऽपि संप्राप्यानन्दमक्षयम् । पुनरावृत्तिरहितं स्वीयं धाम प्रयच्छति ।। इति च । इस प्रकार उपासनारूपी कर्म से परिपूर्ण [ अन्तर्यामी के ] ज्ञान से जब जीव ( द्रष्टा ) का अपने कर्मों को देखना समाप्त हो जाता है, तब ईश्वर में निष्ठा रखनेवाले भगवान् के भक्त को, भक्तवत्सल, परम दयालुपुरुषोत्तम अपना वह पद देते हैं जिसमें ईश्वर के यथार्थ रूप का अनुभव करने के अनुरूप अपरिमित आनन्द प्राप्त होता है, और जहाँ से फिर आवृत्ति ( Return ) नहीं होती है। स्मृतियों में ऐसी ही बात है— 'मुझे पाकर महात्मा लोग पुनर्जन्म-रूपी अस्थिर दुःख - भाण्डार में प्रवेश नहीं करते हैं, वे सबसे ऊँची सिद्धि पा हैं (गीता, ८।१५ ) ।' इसी प्रकार - ' वासुदेव भी अपने भक्त को पाकर अक्षय- आनन्द के रूप में अपना स्थान प्रदान करते हैं जहाँ से फिर लौटकर आना नहीं है ।' विशेष - यह स्वाभाविक है कि जीव अपने आप को देखता हो, उसकी यह दृष्टि बन्द हो जाती है । जीव का अपने रूप को देखना मोक्ष का प्रतिबन्धक है । बृहदारण्यकोपनिषद् ( ३।४।२ ) में कहा है— न दृष्टेर्द्रष्टारं पश्येः अर्थात् दृष्टि करनेवाले को मत देखो । जीव को अपने रूप को देखना नहीं चाहिए । फिर 'आत्मानं विद्धि' ( अपने को पहचानो ) का कैसे अर्थ होगा ? यह स्मरण रखना है कि दर्शन करनेवाला ( द्रष्टा ) जीव है जब कि दर्शन किया जानेवाला ( द्रष्टव्य ) परमात्मा है, जो जीव के अन्तर में निवास करता है । 'द्रष्टव्यः श्रोतव्यः मन्तव्यो निदिध्यासितव्य:' में जीव का अपने रूप से पृथक् अन्तरात्मा को देखने आदि का विधान है । जीव इन्द्रियों के अधीन दर्शन-शक्ति प्राप्त करते हैं । उन जीवों को देखना नहीं चाहिए, प्रत्युत उनके अन्तर्गत विराजमान, विभु, अन्तर्यामी परमात्मा को देखें । स्वान्तरात्मा को देखें, जीव को नहीं, क्योंकि यह तो साँस लेता है । इसलिए 'द्रष्टृ - दर्शने नष्टे' का अर्थ है कि जब जीव अपने आप को या अपने कर्मों को देखना बन्द कर देता है, उसकी यह स्वाभाविक शक्ति नष्ट हो जाती है तब भगवान् अपने धाम में प्रविष्ट कराते हैं । ( ब्रह्मसूत्र की व्याख्या - प्रथम सूत्र ) तदेतत्सर्वं हृदि निधाय महोपनिषन्मतावलम्बनेन भगवद्बोधायनाचार्यकृतां ब्रह्मसूत्रवृत्ति विस्तीर्णामालक्ष्य रामानुजः शारीरकमीमांसा
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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