SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३४ ) सम्बन्ध से जीवात्मा में भी कर्ता होने की प्रतीति हो जाती है। जिस रूप में जीवात्मा कर्ता है उसी रूप में भोक्ता भी है। (३) संसार-संसार अर्थात् जड़-वर्ग की सत्ता के विषय में किसी का मतभेद नहीं हो सकता, भले ही वह सत्ता भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से मानी जाय । चार्वाकों का कहना है कि जड़ पदार्थ ही संसार का मूल कारण है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के परमाणु ही संसार का निर्माण करते हैं। बौद्ध लोग यद्यपि चार्वाक की तरह ही आकाश-तत्त्व नहीं मानते किन्तु वे चार्वाक के द्वारा सम्मत परमाणुओं में अवयव मानते हैं और उन अवयवों का प्रवाह संसार का निर्माण करता है । जैन लोग एक प्रकार के परमाणुओं को ही संसार के मूल कारण के रूप में स्वीकार करते हैं। आकाश भी इन्हें मान्य है। न्यायवैशेषिक दर्शनों में सूर्य की किरणों में उड़ने वाले धूल-कणों के अवयवों को परमाण कहते हैं। दो परमाणु के संयोग से एक द्वयणुक बनता है। तीन द्वयणुकों के मिलने से एक व्यणुक बनता है। यही सूर्य की किरणों में धूल के रूप में दिखलाई पड़ता है। इसी क्रम से संसार का निर्माण होता है। ये परमाणु नित्य हैं । दूसरी ओर मीमांसक और वैयाकरण परमाणुओं को भी अनित्य मानते हुए केवल शब्द की नित्यता स्वीकार करते हैं। यह शब्द ही संसार का मूल कारण है । सांख्य-योग के मत से यह शब्द भी कार्य है, नित्य नहीं, क्योंकि शब्द का कारण अहंकार है । अहंकार का कारण महत् और महत् का कारण त्रिगुणात्मक प्रकृति है। रामानुज-सम्प्रदाय वाले इसे ही मान्यता देते हैं। अद्वैत-वेदान्तियों के अनुसार यह प्रकृति भी मूल कारण नहीं हो सकती। यह ब्रह्म का विवर्त है जिससे प्रकृति सद्वस्तु के रूप में प्रतीत होती है। आत्मा ही संसार का मूल कारण है। ये सारे दृश्यमान पदार्थ उसी के विवर्त हैं। __ अब हम यह विचार करें कि यह सृष्टि-मूल कारण से किस रूप में सम्बद्ध है। इस पर न्याय-वैशेषिकों का कहना है कि कारण तीन प्रकार के हैं-सयवायी असमवायी और निमित्त । ये तीनों मिलकर अपने से भिन्न कार्य को उत्पन्न करते हैं । अर्थात् कारणों से भिन्न रूप में कार्य की उत्पत्ति होती है। इसे ही आरम्भवाद भी कहते हैं। सभी लोग इस मत को नहीं मातते । बौद्धों का कहना है कि समवायी अर्थात् उपादान कारण ( जैसे मिट्टी या सूत ) अपने से भिन्न कार्य उत्पन्न नहीं करते हैं । तदनुसार समवायी कारण का संघात (Combination) होने से ही कार्य होता है। इसे केवल सौत्रान्तिक और वैभाषिक बौद्ध ही मानते हैं। चूंकि संघात भी क्षण-क्षण में बदल रहा है अतः कारण
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy